Book Title: Jain Dharm me Dhyan
Author(s): Manoharlal Puranik
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

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Page 1
________________ जैन धर्म में ध्यान लेखक- मनोहरलाल मणिलालजी पुराणिक अधिवक्ता कुक्षी जिला धार म.प्र. जैन मतावलम्बियों के लिये बताये गये तप में अभ्यन्तर प्रकार के तपों में पांचवां तप ध्यान हैं। योग के, यम नियम आसन प्रणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान व समाधि इन आठ अंगो में सातवां अंग ध्यान है ध्यान के चार भेद १. पदस्थ २. पिण्डस्थ ३. रुपस्थ व ४. रुपातीत धर्म ध्यान इन दो शब्दों का अक साथ उपयोग/प्रयोग कर के शास्त्रों में इनकी अकरूपता व अविच्छिन्नता बताई गई है । यद्यपि ध्यान, धर्म से व्यक्ति को जोड़ने की क्रिया है तथापि इसके अभाव में धर्म सूना सूना सा हो जाता है। धर्म के बारे में सोचने का अवसर ध्यान देता है, ध्यान व्यक्ति को अन्तर झांकने में स्वयं के समझने व पहचानने में सहायक होता है। जैन धर्म में मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। जो लोग संसार सागर से पार उतर गये उनकी आत्मा व साधारण व्यक्ति की आत्मा को मूलत, कोई भेद नहीं है। भेद वास्तव में आत्मा पर चढी चार कषाय व आठ मद की परतों का है। जिस आत्मा पर से ये परते हटी वही आत्मा परम आत्मा हो गई। इन परतों को देखने के लिये आंख मुन्द कर ध्यान लगाना होता है। ध्यान लगाने में यह ध्यान रखना होता है कि आंख मुन्दी तो जाये पर वह दृष्टीहीन न हो जाये। वह बाहर के बजाय अन्दर की और देखने लगे यह आवश्यक है। मानव शरीर अपने आप में बहूत बडा यन्त्रालय है। यन्त्रों के सन्चलन में जिस प्रकार गडबडियां आया करती है उसी प्रकार मानत शरीर में भी विकार व रोग होते रहते है। तीर्थकरों के शरीर ऋषभनाराचसंघण व अतिशययुक्त होने के कारण से उनमें विकार व रोग नहीं होते है। इस कारण उनके द्वारा किये जाने वाले ध्यान में श्वास उपर लेने व नीचे छोडने, खांसी, छीक, जम्हाई, डकार, वायु, निसरण अकस्मात, देह भ्रमण, मूर्छा व चक्कर आने आदि कारणों से अंग संचलन नहीं होता है। थुक व श्लेष्म भी शरीर संचलन नहीं कर पाते है नहीं दृष्टि संचलन का विकार/बाधा होती है किन्तु सामान्य व्यक्ति के शरीर में न तो अतिशत होता है नहीं वह चरम शरीरी होता है इस कारण से सामान्य व्यक्तियों के ध्यान मे शरीर में होने वाली व्याधियों प्रकृतिक परिवर्तनों, रोगों, विकारो आदि से बाधा होती है हमारे पूर्वाचार्यों ने अपने अलौकिक अनुभवों से उक्त शारीरीक विकारों से होने वाली बाधाओं को जाना। ध्यान करने में सर्वप्रथम अपने मन का, काया से सम्बंध तोडना/छोडना होता है मन का सम्बंध अदृश्य शक्ति से जुड़ने का अनुभव करना होता है। इस स्थिति को कायोत्सर्ग कहा जाता है। कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण के छ: आवश्यक में से अक है जो अभ्यन्तर तप की श्रेणी में भी आता है। कायोत्सर्ग के बिना ध्यान की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह ध्यान की प्रथम सीढी है। ध्याता की ध्येय में तल्लीनता भी कभी कभी काया का उत्सर्ग कर देती है। काया को पता ही नहीं चलता है कि बाहर क्या हो रहा है। पानव शरीर की कमजोरियों का सुक्ष्म विष्लेशण करके हमारे पूर्वाचार्यों ने ध्यानत्मय कायोत्सर्ग में उंचा श्वास लेने, नीचे श्वांस छोडने, खांसी आने, छींक होने, जम्हाई आने, डकार आने, वायु निसरण, अकस्मात देह भ्रमण/चक्कर आने, पित्त प्रकोप के कारण से धुंक श्लेष्म के कारण ज्ञान-पूर्वक उत्पल-वैराग्य याने वासनाओं ये वैराग्य, आत्मा से चिपके हुए आत्म-जरा-मृत्यु के जाल को छेदने का पुरुषार्थ है। ३४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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