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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
कृति महापुराण प्रसिद्ध है। इसका पूर्वभाग आदिपुराण और शेष भाग उत्तरपुराण के नाम से भी जाना जाता है। आदिपुराण में ऋषभ का और उत्तरपुराण 'में शेष सभी तीर्थंकरों का वर्णन है। दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचित पुराण-ग्रंथ अनेक हैं, किन्तु यहाँ उन सबकी चर्चा करना संभव नहीं है।
जैनसाहित्य में उपलब्ध तीर्थंकर की अवधारणा का सर्वेक्षण
तीर्थंकर की अवधारणा के संबंध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि लगभग ईसा की चौथी शताब्दी तक ऐसा कोई भी साहित्य हमें उपलब्ध नहीं होता है कि जिसमें २४ तीर्थंकरों की अवधारणा का विकसित रूप उपलब्ध होता हो । संभवतः सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी, दूसरी शताब्दी से हमें तीर्थंकरों की अवधारणा में अलौकिकता संबंधी कुछ विवरण उपलब्ध होते हैं किन्तु व्यवस्थित रूप से २४ तीर्थंकरों की कल्पना का कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होता है। हमें ऐसा लगता है कि जैन- परम्परा में २४ तीर्थंकरों की सुव्यवस्थित अवधारणा और उनका नामकरण ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के आसपास ही हुआ होगा, यद्यपि २४ तीर्थंकरों के नामोल्लेख करने वाले विवरण भगवती, समवायांग आदि में उपलब्ध हैं किन्तु विद्वान् इन्हें ईसा की प्रथम शताब्दी या इनके परवर्तीकाल का ही मानते है। यदि हम अन्य तीर्थंकरों के जीवनवृत्तों को एक ओर रख दें, तो भी स्वयं महावीर के जीवनवृत्त में एक विकास देखा जा सकता है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उपधान नामक नौवें अध्याय में वर्णित महावीर का चरित्र, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के वीरस्तव नामक षष्ठ अध्याय में कुछ विकसित हुआ है । फिर वह कल्पसूत्र में हमें अधिक विकसित रूप में मिलता है। कल्पसूत्र की अपेक्षा भी आचारांग
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५ वें अध्याय में वर्णित महावीरचरित्र अधिक विकसित है, ऐसा डॉ. सागरमल जैन की मान्यता है । उनकी मान्यता का आधार कल्पसूत्र की अपेक्षा आचारांग के महावीरचरित्र में अधिक अलौकिक तत्त्वों का समावेश है। भगवतीसूत्र में महावीर के जीवनवृत्त से संबंधित कुछ घटनाएँ, उल्लेखित हैं यथा - • देवानंदा, जामालि तथा गोशालक - संबंधी घटनाएँ उसमें गोशालक संबंधी विवरण को जैन विद्वानों ने प्रक्षिप्त एवं परवर्ती माना है। आवश्यकनिर्युक्ति यद्यपि कल्पसूत्र
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की अपेक्षा महावीर का जीवनवृत्त विस्तार से उल्लेखित नहीं करती है, फिर भी २४ तीर्थंकरों - संबंधी सुव्यवस्थित जो वर्णन उसमें मिलता है, उससे ऐसा लगता है कि इसकी रचना कल्पसूत्र की अपेक्षा परवर्तीकाल की है। इतना निश्चित है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से २४ तीर्थंकरों की सुव्यवस्थित अवधारणा उपलब्ध होने लगती है । यद्यपि तीर्थंकरों के जीवनवृत्तों का विकास बाद में भी हुआ। संभवतः ईसा की ७वीं शताब्दी में सर्वप्रथम तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त लिखने के प्रयत्न किए गए, संभव है तत्संबंधित कुछ अवधारणाएँ पूर्व में भी प्रचलित रही हों। आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) महावीर और ऋषभ का विस्तृत विवरण देती है।
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दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में लगभग ईसा की ९ वीं शताब्दी से ही हमें २४ तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त मिलने लगते हैं। यद्यपि इस काल के लेखकों के सामने कुछ पूर्व परम्पराएँ अवश्य रही होंगी, जिस आधार पर उन्होंने इन चरित्रों का विकास किया । वस्तुतः ईसा की दूसरी शताब्दी से ९ वीं शताब्दी के बीच का काल ही ऐसा है, जिसमें २४ तीर्थंकरों-संबंधी अवधारणा का क्रमिक विकास हुआ। आश्चर्यजनक यह है कि बौद्ध परम्परा में २४ बुद्धों और हिन्दू - परम्परा के २४ अवतारों और उनके जीवनवृत्तों को भी सुव्यवस्थित रूप इसी काल में दिया गया है जो तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हिन्दू परम्परा में अवतार की अव्यवस्थित अवधारणा हमें भागवतपुराण में मिलती है । इतिहासविदों ने भागवतपुराण का काल लगभग ९वीं शताब्दी माना है, यही काल शीलांक के चउपन्नमहापुरिसचरियं एवं दिगम्बर - परम्परा के महापुराण आदि का है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि २४ तीर्थंकरों, २४ बुद्धों और २४ अवतारों की अवधारणा कालक्रम से विकसित होकर सुनिश्चित हुई है। इसी प्रसंग अतीत एवं अनागत तीर्थंकरों और बुद्धों की कल्पना विकसित हुई, जो तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है।
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अब हम ग्रंथ की सीमा को देखते हुए भूतकालीन और आगामी तीर्थंकरों के नाम निर्देश के साथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीर्थंकरों के जीवनवृत्त के संबंध में संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालेंगे।
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