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जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त - साध्वीश्री जतनकुमारी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या)
आस्तिक दर्शनों की मूल भित्ति आत्मा है । जो आत्मा को नहीं जानता है, वह लोक, कर्म और क्रिया को भी नहीं जान सकता है; और जो आत्मा को जानता है, वह लोक, कर्म और क्रिया को भी जानता है।
क्रिया को स्वीकारने वाला कर्म को और कर्म को स्वीकारने वाला क्रिया को अवश्य स्वीकारता है । क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित है तब उसे अस्वीकारा भी नहीं जा सकता है, अपितु स्वीकार के लिए किसी न किसी शब्द को माध्यम बनाना होता है, चाहे उसे कुछ भी अभिधा दें।
दो सहजात शिशु एक साथ पले-पुसे । एक गोद में फले-फूले । पढ़े-लिखे। समान अंकों में उत्तीर्ण हुए। कालेजीय-जीवन की परिसमाप्ति के बाद व्यवसाय के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए।
पिता ने कर्म कौशल की परीक्षा के लिए दोनों को समान साधन-सामग्री दी। छोटे बेटे ने थोड़े ही दिनों में तरक्की कर ली और जन-जन का विश्वासपात्र बन गया किन्तु बेचारा बड़ा बेटा बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यापार में उन्नति नहीं कर पाया।
राम नवमी के पुण्य-पर्व पर पिता ने दोनों के बहीखाते देखे । छोटे बेटे के बहीखाते लाखों का मुनाफा लिए हैं और बड़े बेटे के लाखों का कर्ज । पिता विस्मित सा सोचने लगा--तुल्य साधन-सामग्री और तुल्य-पुरुषार्थ, फिर भी यह वैषम्य !
इस वैषम्य का समाधान बहुत प्रयत्न के बाद इस आर्ष वाणी से मिला"जो तुल्ल साहणाणं फले विसेसो, ण सो विणाहेउं कज्जतण ओ गोयमा ! धडोव्व हे ऊय सो कम्म।"
-विशेषावश्यक भाष्य इस वैषम्य का मूलाधार कम है । यह कर्म ही पुरुषार्थ को सफल-विफल करता है तथा कर्म में वैचित्र्य भी लाता है।इसीलिए दो व्यक्तियों का वर्तमान में किया गया समान पुरुषार्थ भी, समान फल नहीं देता।
जब व्यक्ति का वर्तमान पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से निर्बल होता है, तब वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा नहीं कर सकता और जब उसका वर्तमान पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से प्रबल होता है, तब उसे अन्यथा भी किया जा सकता है।
मनीषी मूर्धन्य भगवान् महावीर ने जीव-सिद्धान्त की तरह कर्म-सिद्धान्त का विवेचन आवश्यक समझा इसी । लिए उन्होंने अपने आगम ग्रन्थों में आत्म-प्रवाद की भाँति कर्म-प्रवाद को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । एक-एक प्रश्न का गहराई के साथ विश्लेषण किया।
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