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कलश नामक श्वेताम्बर साधु ने विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष पश्चात् कल्याण नगर में यापनीय संघ प्रारम्भ किया । ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण का अभाव है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरा कथानक रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित्र (ईसा की लगभग १५वीं शताब्दी में उपलब्ध होता है४१
करहाटक के राजा भूपाल की पत्नी नृकुलादेवी ने राजा से आग्रह किया कि वे उसके पैतृक नगर जाकर वहाँ आये हुए आचार्यों को आने हेतु अनुनय करें राजा ने नकुलादेवी के निर्देशानुसार अपने । मन्त्री बुद्धिसागर को भेजकर उन मुनियों से करहाटक पधारने की प्रार्थना की। राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर वे मुनिगण करहाटक पधारे। उनके स्वागत हेतु जाने पर राजा ने देखा कि वे साधु सवस्त्र हैं और उनके पास भिक्षा पात्र और लाठी भी है यह देखकर राजा ने उन्हें वापस लौटा दिया। नृकुला देवी को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उन मुनियों से दिगम्बर मुद्रा में पिच्छि कमण्डलु लेकर पधारने का आग्रह किया और उन्होंने तदनुरूप दिगम्बर मुद्रा धारण कर नगर प्रवेश किया। इस प्रकार वे साधु वेष से तो दिगम्बर थे किन्तु उनके क्रिया-कलाप श्वेताम्बरों जैसे थे । यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रत्ननन्दी का यह कथन पूर्णतः प्रामाणिक नहीं है । यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर परम्परा से न होकर उस मूल धारा से हुई है जो श्वेताम्बर परम्परा की पूर्वज थी, जिससे काल - क्रम में वर्तमान श्वेताम्बर धारा का विकास हुआ है । वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्र - पात्र आदि में वृद्धि होने लगी थी और अचेलकत्व प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, उससे अचेलता के पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें निकलीं । पुनः यापनीय सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तर भारत में हुआ। यापनीयों ने जब दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा तब वे श्वेताम्बर साधु का वेश लेकर गये थे । यह एक भ्रान्त धारणा ही है। उनके कथन में मात्र इतनी ही सत्यता हो सकती है कि यापनीयों के आचार-विचार में कुछ बातें श्वेताम्बर परम्परा के समान और कुछ बातें दक्षिण में उपस्थित दिगम्बर परम्परा के समान थीं।
इन्द्रनन्दी के 'नीतिसार' में यद्यपि यापनीयों की उत्पत्ति कथा नहीं दी गई है किन्तु पाँच प्रकार के जैनाभासों की चर्चा करते हुए उसमें उन्होंने यापनीयों का भी उल्लेख किया है गोपुच्छिक श्वेतवासा, द्रविड़, यापनीय और निःपिच्छक ४२
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इन्द्रनन्दी के उपर्युक्त कथन से मात्र इतना ही फलित होता है कि यापनीय परम्परा इन्द्रनन्दी की मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से भिन्न थी, वे उन्हें जैनाभास मानते थे अर्थात् उनकी दृष्टि में यापनीय जैनधर्म के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। वस्तुतः यापनीय संघ की उत्पत्ति और स्वरूप सम्बन्धी जो कथानक मिलते हैं वे सभी विरोधियों द्वारा प्रस्तुत हैं और संघ की यथार्थ स्थिति से अवगत नहीं कराते हैं । यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मेरा चिन्तन इस प्रकार है मथुरा के अङ्कनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यकृष्ण के समय अर्थात् विक्रम को
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दूसरी शताब्दी में जैनमुनि वस्त्रखण्ड, पिच्छि या रजोहरण एवं पात्र धारण करने लगे थे। हो सकता है छेदसूत्रों में वर्णित १४ उपकरण पूर्ण रूप से प्रचलित न भी हो पाये हो किन्तु इतना अवश्य है कि वस्त्र खण्ड रखकर नग्नता छिपाने का प्रयत्न और भिक्षा पात्रों का प्रयोग होने लगा था। यह वस्त्रखण्ड सम्भवतः मुख वस्त्रिका के रूप में ग्रहण किया जाता था, उसे हाथ की कलाई पर डालकर नग्नता को छिपा लिया जाता था, विशेष रूप से जब भिक्षादि हेतु नगर में जाना होता था । शिवभूति का आर्यकृष्ण से इसी प्रश्न को लेकर विवाद हुआ होगा । जहाँ आवश्यकमूलभाष्य में आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य गुरुशिष्य का सम्बन्ध बताया गया है, वहाँ कल्पसूत्र स्थाविरावली में शिवभूति को अज्ज दुज्जेन्त कण्ह के पहले दिखाया गया है। फिर भी दोनों की समकालिकता में कहीं बाधा नहीं आती है। वस्तुतः विवाद दोनों के बीच हुआ था इसमें कोई सन्देह नहीं है श्वेताम्बर परम्परा में भी रत्नकम्बल प्रसङ्ग को लेकर जो कथानक खड़ा किया गया है वह मुझे प्रामाणिक नहीं लगता। वस्तुतः महावीर के पश्चात् उनके संघ में वस्त्र पात्र ग्रहण करने का क्रमशः विकास हुआ है। क्षुल्लकों और सदोजलिङ्ग वाले व्यक्तियों अथवा राज परिवार से आये व्यक्तियों के लिए अपवादरूप में वस्त्र रखने की अनुमति पहले से ही थी किन्तु जिन कल्प का विच्छेद मानकर जब यह सामान्य नियम बनने लगा तो शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग स्थापित करने का प्रयत्न किया। उनके पूर्व भी आर्यरक्षित को अपने पिता जो उनके ही संघ में दीक्षित हो गये थे, नग्नता धारण करवाने हेतु विशेष प्रयत्न करना पड़ा था क्योंकि वे अपने परिजनों के समक्ष नग्न नहीं रहना चाहते थे। यद्यपि इन्हीं आर्यरक्षित ने भिक्षा पात्र के अतिरिक्त वर्षाकाल में मल-मूत्र आदि के लिए एक अतिरिक्त पात्र रखे जाने की अनुमति भी दी थी। महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थ संघ में नग्नता का एकान्त आग्रह तो नहीं था किन्तु उसे अपवाद के रूप में तो स्वीकृत किया ही गया था किन्तु जब जिनकल्प को विच्छिन्न मानकर अचेलता के अपवाद को ही उत्सर्ग मानकर नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्रखण्ड रखना अनिवार्य किया होगा तो शिवभूति को अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा । उन्होंने जिनकल्प को विच्छिन्न न मानकर समर्थ के लिए अचेलता और पाणीतल भोजी होना आवश्यक माना आपवादिक स्थिति में वस्त्र पात्र से उनका विरोध नहीं था । भगवती आराधना में हमें उनके इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उनके द्वारा अचेलकत्व के पुनर्स्थापन के इस प्रयास से स्पष्ट रूप से संघ भेद हो गया था क्योंकि कल्पसूत्र की पट्टावली में जो अन्तिम परिवर्धन देवर्द्धिगणि के समय पाँचवीं शताब्दी में हुआ उसकी पहली गाथा में गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र, वशिष्ठ गोत्रीय धनगिरि, कोत्स गोत्रीय शिवभूति और कौशिक गोत्रीय दोष्यन्त या दुर्जयन्त कृष्ण का नामोल्लेख है । यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि इसमें शिवभूति के पश्चात् आर्यकृष्ण का उल्लेख है जबकि आवश्यकमूलभाष्य में शिवभूति को आर्यकृष्ण
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