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________________ a जन-मंगल धर्म के चार चरण पर्यावरण प्रदूषण बाह्य और आन्तरिक भौतिक विज्ञान की करामात वर्तमान युग विज्ञान युग कहलाता है। यह विकास और प्रगति का युग माना जाता है। धरती पर बैलगाड़ी और घोड़े की सवारी करने वाला मानव आज गगनगामी विमानों में पक्षियों की भाँति उड़ान भरने लगा है। जब हम सुदूर अतीत में झाँकते हैं, तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह युग कितना पिछड़ा हुआ और अविकसित था। एक दृष्टि से सोचें तो वह आदिम युग जंगली युग था, जिसमें विकास और प्रगति का नामोनिशान नहीं था। आज भौतिक विज्ञान ने प्रचुर अकल्प सुख-साधन-सामग्री का अम्बार लगा दिया है। मनुष्य स्वप्न में भी जिन चीजों की कल्पना नहीं कर पाया था, उन वस्तुओं का आश्चर्यजनक रूप से निर्माण करके विज्ञान ने मानव को चमत्कृत कर दिया है। साधारण जनता की बुद्धि तो वहाँ तक पहुँच भी नहीं पाई है। उन्हें तो यह सब आश्चर्य ही लग रहा है। यद्यपि जादूगर जादू के करिश्मे दिखाकर मानव-मन को प्रभावित कर देते हैं, किन्तु वे करिश्मे सुदीर्घकाल स्थायी नहीं होते। उनमें या तो हाथ की सफाई होती है, या हिप्नोटिज्म या मैस्मेरिज्म द्वारा दर्शकों की आँखों को या मन को मूर्च्छित कर दिया जाता है। ये सारे चामत्कारिक प्रयोग अल्पकाल के लिये ही मानवमन को गुदगुदाते और प्रमुदित करते हैं। इसके विपरीत भौतिक विज्ञान के एक से एक बढ़कर चमत्कार मानव मन पर चिरस्थायी प्रभाव डालते हैं, उसे स्वयं उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी करा देते हैं। भौतिक विज्ञान का आध्यात्मिक क्षेत्र में पिछड़ापन किन्तु हम देखते हैं कि यह विज्ञान भौतिक क्षेत्र में जितना द्रुत गति से आगे बढ़ा और अहर्निश बढ़ता ही जा रहा है, उसकी उतनी द्रुतगामिता आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं आ पाई है जो कुछ गति हुई है, वह भी बहुत ही नगण्य है, क्योंकि भौतिक विज्ञान को प्रमुख उद्देश्य और कार्यक्षेत्र भौतिक क्षेत्र ही रहा है। इसलिए आध्यात्मिक दौड़ में यह पिछड़ता रहा है। भौतिक विज्ञान के आध्यात्मिक क्षेत्र में पिछड़ेपन का अनिष्ट फल वर्तमान प्राणिजगत् को ही भोगना पड़ रहा है। विज्ञान और अध्यात्म दोनों पूरक व सहयोगी हैं यह तो दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों प्रतिस्पर्धी या विरोधी नहीं हैं, बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक, सहयोगी और जीवन विकास के अंग हैं। जीवन-निर्माण में दोनों का अपना-अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों में से किसी एक को छोड़कर दूसरा अकेला चले तो मानवजगत् पर जानबूझ कर आफत लाने जैसी बात होगी। जैसे मानव शरीर में मस्तिष्क और हाथ दोनों का विकसित और सुदृढ़ होना अनिवार्य है। एक अंग विकसित और पुष्ट हो और दूसरा ५६९ -श्री विनोद मुनिजी म. (अहमदनगर) अंग अविकसित और दुर्बल हो तो कार्य करने की क्षमता शरीर में नहीं आ सकती। मनुष्य के दोनों पैर बराबर और मजबूत हों, तभी वह आराम से गति कर पाता है; अन्यथा उनसे चलने-फिरने में बहुत दिक्कत होती है। वर्तमान युग का मानव अशान्त क्यों? वर्तमान का मानव इसीलिये अशान्त, त्रस्त, तनावग्रस्त एवं भयाक्रान्त बना हुआ है कि भौतिक विज्ञान आध्यात्मिकता की उपेक्षा करके आगे बढ़ा है। इसीलिए मानवमन को कदम-कदम पर शंका-कुशंकाएँ घेरे रहती हैं। वर्तमान युग का मानव शान्ति के बदले अशान्ति तथा चैन के बदले बेचैनी से जी रहा है। आज आदमी में स्वार्थ, ईर्ष्या, भय, अविश्वास एवं अहंकार की वृत्तियाँ फलती-फूलती जा रही हैं। एक समाज दूसरे समाज को और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को गिराने में तत्पर है। एक-दूसरे के विकास को देखना भी असह्य हो रहा है। धर्म-परम्पराओं और सम्प्रदायों में भी इसी तरह की संकीर्ण मनोवृत्ति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। आध्यात्मिकता के अभाव में समस्याएँ नहीं सुलझा पाता वर्तमान में, भौतिक विज्ञान की अन्धी दौड़ में मानव के पैर न तो धरती पर टिक पा रहे हैं और न ही आकाश पर। उसके सामने आज जीवन की अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं जिन्हें सुलझाने में उसका दिमाग कुण्ठित हो जाता है। वह जैसे-जैसे उन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करता है, वैसे-वैसे वे उलझती जाती हैं। आध्यात्मिकता के अभाव में, या यों कहिये आत्मवत् सर्वभूतेषु मंत्र के अभाव में भौतिक विज्ञान के घोड़े पर चढ़ा हुआ मानव किसी भी समस्या को ठीक तरह से हल नहीं कर पाता है। बाह्य और आन्तरिक समस्या है-पर्यावरण प्रदूषण की। आज सबसे बड़ी और अहम समस्या है पर्यावरण के प्रदूषण की। बाह्य पर्यावरण के प्रदूषण से भी बढ़कर आन्तरिक पर्यावरण का प्रदूषण है, जिसे पाश्चात्य देशों के लोग तो कथमपि हल नहीं कर पाते। पाश्चात्य देश भारतवर्ष को अध्यात्म सम्पन्न मानकर इससे इस समस्या को हल करने की अपेक्षा रखते थे, परन्तु अफसोस है कि भारतवर्ष आज स्वयं ही बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के पर्यावरण प्रदूषणों से ग्रस्त है। पर्यावरण प्रदूषण का प्रश्न आज केवल एक राष्ट्र का नहीं रहा, आज वह सारे जगत् का प्रश्न बन गया है। जो भारतवासी लोग गंगा, यमुना, सरस्वती, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों को जलीय पर्यावरण प्रदूषण से रहित पवित्र, मैया तीर्थरूप एवं लोकमाता मानते थे, उन्होंने या भारत के नागरिकों ने इस तथ्य को नजरअंदाज करके धड़ल्ले से गंगा आदि पवित्र लोकमाता रूप नदियों के किनारे बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाकर उसमें दूषित एवं गंदा, रोगवर्द्धक जल डालकर अमृत को
SR No.210738
Book TitleJain Dharm aur Paryavaran Santulan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size8 MB
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