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ही है, वायु प्रदूषण भी कम नहीं होता स्फोटक ध्वनि से बड़े-बड़े पत्थरों को तोड़ा जा सकता है तो मनुष्यों और पशुओं के कान के पर्दे न फटें, यह असंभव है। यातायात की खड़खड़ाहट, विमानों का कर्णभेदी स्वर, रेडियो आदि का कर्ण कटु स्वर, कल-कारखानों और मशीनों की सतत घड़घड़ाहट अत्यधिक कोलाहल, विभिन्न वस्तुओं के घर्षण से होने वाली आवाज तथा कम्पन आदि कितने ही प्रकार की ध्वनियाँ हमारे कानों पर आक्रमण करती हैं। अमेरिका के वातावरण-संरक्षक विभाग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है अकेले अमेरिका में तीव्र आवाज से ४ करोड़ लोगों के आरोग्य को धक्का पहुँचा है। कार्यालयों या घरों में शान्त जीवन बिताने वाले अन्य ४ करोड़ लोगों की कार्यक्षमता में कमी आई है। लगभग २५ लाख लोग कर्ण यंत्र के प्रयोग के बिना कानों से सुनने में असमर्थ हो गए हैं।
असह्य ध्वनि का प्रभाव केवल कानों पर ही नहीं, सारे शरीर पर पड़ता है। श्वसन-प्रणाली, पाचन प्रणाली, प्रजनन क्षमता तथा मज्जा संस्थान पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। सिर दर्द, आँखों में घाव, स्नायु दौर्बल्य आदि बीमारियाँ भी इसी की देन हैं। श्रवण शक्ति तो मन्द पड़ती ही है। अधिकतर झगड़े, दंगे-फिसाद का मूल कारण तीव्र एवं कर्कश ध्वनि है। इसीलिए भगवान् महावीर ने 'वइसंजमे' (बचनसंयम) वचनगुप्ति, विकथा-त्याग, भाषासमिति (भाषा की सम्यक् प्रवृत्ति) आदि पर अत्यधिक जोर दिया है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है-जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा । १२ जो सत्य को जानता है, वही मौन का महत्त्व जानता है। भगवान् महावीर ने इसी दृष्टि से वायुकायिक हिंसा से बचने का उपदेश दिया था।
सन्दर्भ स्थल
१. जीवकाय संजमे अजीवकाय संजमे २. भगवद्गीता ३ / ११
३. 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्।'
-समवायांग समवाय २ -तत्त्वार्थ सूत्र ५/२१
४. स्थानांग सूत्र, स्थान. ५ / सू. ४४७ ५. पुढवीकायसंजमे अपकायसंजमे,
अवहट्ठ
तेउकायसंजमे, वाउकायसंजमे, वणस्सइ-काय संजमे, बेइंदिय-संजमे, तेइंदिय-संजमे, चउरिंदिय-संजमे, पंचिदिय-संजमे अजीवकाय-संजमे, पेहासंजमे, उवेहा-संजमे, संजमे, पमज्जणासंजमे, मणसंजमे, वइ संजमे, काय संजमे। - समवायांग सूत्र १७ वां समवाय ६. देखें आवश्यकसूत्र में १५ कर्मादानों का पाठ ७. “तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्यं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं पुढवि-सत् समारंभोवेज्जा, नेवण्णे पुढविसत्यं समारभते समाज्जा" -आचारांग १/१/३४ ८. "जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसई।" - आचारांगसूत्र १/१/२७
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ वनस्पतिजन्य हिंसा और प्रदूषण
वनस्पतिकाय की हिंसा के नानाविध दुष्परिणाम अतीव स्पष्ट है। एक ओर उससे प्राणवायु (ऑक्सीजन) का नाश हो रहा है, दूसरी ओर भूक्षरण तथा भूस्खलन को बढ़ावा मिल रहा है। पेड़-पौधे आदि सब वनस्पतिजन्य हैं। इनमें जीवन का अस्तित्व जगदीशचन्द्र बोस आदि जैव वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है। इनकों हर्ष-शोक या सुख-दुःख का संवेदन होता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने वनस्पतिकाय संयम बताया है। वृक्षों को काटकर उनसे आजीविका करने (वणकम्मे ) तथा वृक्षों से लकड़ियों काटकर कोयले बनाने के धंधे (इंगालकामे) एवं बड़े-बड़े वृक्षों के लहों को काट-छील कर विविध गाड़ियाँ बनाने और बेचने के धंधे (साड़ी कम्मे ) की सद्गृहस्थ के लिए सख्त मनाही ही की है। वनों प्राकृतिक संपदा को नष्ट करना भयंकर अपराध है उससे वृष्टि तो कम होती ही है, मानव एवं पशुओं के जीवन भी प्रकृति से बहुत दूर हो जाते हैं, कृत्रिम बन जाते हैं पर्यावरण सन्तुलन को बनाये रखने में वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं का बहुत बड़ा हाथ है। परन्तु मनुष्य आज रासायनिक खाद एवं जहरीली दवाइयाँ डालकर जमीन को अधिक उर्वरा बनाने का स्वप्न देखता है, मगर इससे बहुत से कीड़े मर जाते हैं, तथा जो अन्नादि पैदा होता है, वह भी कभी-कभी विषाक्त एवं सत्त्वहीन हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा "जो लोग नाना प्रकार के शस्त्रों (खाद, विषाक्त रसायन, कीटनाशक दवा आदि) से वनस्पतिकाय के जीवों का समारम्भ करते हैं, वे उसके आश्रित नाना प्रकार के जीवों का समारम्भ करते हैं। १३ अतः वनस्पति से होने वाले प्रदूषण एवं पर्यावरण असंतुलन से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
९. "जे लोग अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति।"
लोए,
- आचारांग १/१/४/३२ १०. “इच्चत्थं गढिए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकाय-समारंभेणं अगणि-सत्यं समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । "
"संति पाणा पुढवि- णिस्सिता तण णिस्सिता, पत्त - णिस्सिता कट्टणिस्सिता गोमय- णिस्सिता कयवर णिरिसता, सांते संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति च। -आचारांग १/१/४/३६-३७ ११. “जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदय कम्म-समारंभेण उदयसत्यं समारंभमाणे अण्णेऽणेगरूवं पाणेविहिंसति ।... संतिपाणाउदयणिस्सिया जीवा अणेगा।" -आचारांग १/१/२/२५
वही, १/१/४/५१
१२. १३. आचारांगसूत्र १/१/५/४४