SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त60P46080 8 868 2000000 33000000000 / जन-मंगल धर्म के चार चरण 573 ataa में आकर्षित करना; किसी को समकित या गुरु धारणा बदलवाकर हास्य (हंसी-मजाक) रति-अरति (विलासिता और असंयम के प्रति अपने गुरु की समकित देना या गुरु धारणा कराना माया का प्रपंच प्रीति, सादगी और संयम के प्रति अप्रीति) शोक (चिन्ता, तनाव, है। माया किसी भी रूप में हो वह हेय है, परन्तु माया करने में उद्विग्नता आदि) भय (सप्तविध भयाकुलता) जुगुप्सा (दूसरों के कुशल व्यक्ति को व्यवहार कुशल, वाक्पटु या प्रज्ञाचतुर कहा जाता प्रति घृणा, अस्पृश्यता, बदनाम करना, ईर्ष्या करना आदि) है। व्यावहारिक जगत् में तो वर्तमान में इस प्रकार की माया का कामवासना (वेदत्रयाभिलाषा) इत्यादि नोकषाय भी भयंकर बोलबाला है ही; धार्मिक जगत् भी इससे अछूता नहीं रहा। जैनागमों आन्तरिक प्रदूषण फैलाते हैं। में बताया गया है कि मायी मिथ्यादृष्टि होता है। माया की तीव्रता अहंकार और मद के आन्तरिक प्रदूषणों के बढ़ जाने से क्षमा, होने पर मिथ्यात्व का उदय हो जाता है। संक्षेप में माया का मृदुता, नम्रता, सरलता, सत्यता, शुचिता, मन-वचन-काय-संयम, आन्तरिक पर्यावरण को प्रदूषित करने में बहुत बड़ा हाथ है। सुख-सुविधा के साधनों पर नियंत्रण, आत्मदमन, देव-गुरु-धर्म के लोभवृत्ति : सर्वाधिक आन्तरिक प्रदूषण वर्द्धिनी प्रति श्रद्धा-भक्ति, ब्रह्मचर्य भावना, त्याग-तप की वृत्ति, निःस्पृहता आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाने में इन सबसे बढ़कर है- आदि आत्मगुणों का लोप होता जा रहा है। इसी कारण परिवार, लोभ। माया को उत्तेजित करने वाला लोभ ही है। लोभ के भी समाज, राष्ट्र, धर्म सम्प्रदाय आदि में परस्पर कलह, संघर्ष, शोषण अनेक रूप हैं। माया के अन्तर्गत गिनाये हुए समस्त प्रदूषण लोभ के आदि पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। सामान्यतया उपशम से ही प्रकार हैं। इसीलिए लोभ को हिंसादि अठारह पाप स्थानों का क्रोध का, मृदुता (नम्रता) से मान का, ऋजुता (सरलता) से माया / जनक-पाप का बाप बताया गया है। इच्छा, तृष्णा, लालसा, वासना, का और संतोष से लोभ का नाश करने का विधान है। कामना, प्रसिद्धिलिप्सा, पद लिप्सा, प्रतिष्ठा लिप्सा, जिह्वा लिप्सा बाह्य और आन्तरिक प्रदूषणों को रोकने के लिए तीन उपाय आदि सब लोभ के प्रकार हैं। लोभ समस्त अनर्थों का मूल है। इन सबकी पूर्ति के लिए लोलुप मनुष्य बड़े से बड़ा कष्ट, संकट, परन्तु दून बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के प्रदूषणों को विपत्ति, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि की तकलीफ भी उठाने को तैयार रोकने के लिए तीन तत्त्वों का मानव जगत् में होना आवश्यक है-al हो जाता है। स्वार्थान्ध या लोभान्ध मानव अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए (1) संयम, (2) समता और (3) समाधि। माता-पिता, भाई-भतीजा, पुत्र-पुत्री आदि को भी कुछ नहीं गिनता। असंयम ही पृथ्वी, जल आदि के बाह्य प्रदूषणों एवं क्रोधादि ! धन के लोभ के वशीभूत होकर अपनी पत्नी, पुत्रवधू आदि को भी एवं रागादि वृत्तियों से होने वाले आन्तरिक प्रदूषणों को फैलाता है। जलाने, मारने प्रताड़ित करने को उतारू हो जाता है। लोभी मनुष्य इन्हें रोकने के लिए संयम (आस्रवनिरोधरूप तथा विषय-कषायादि लज्जा, शिष्टता, ईमानदारी, धर्म आदि सबको ताक में रख देता है। त्यागरूप) का होना आवश्यक है। धार्मिक स्थानों, मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, तीर्थों, चर्चों आदि में भी लोभ-लालचियों ने अपना अड्डा जमा लिया है। अपरिग्रहवृत्ति इसके साथ ही विषमता, दानवता, पशुता और भेदभाव होने और नि:स्पृहता की दुहाई देने वाले सन्तों, महन्तों, साधु-संन्यासियों वाले बाह्य और प्रत्येक सजीव निर्जीव पदार्थ के प्रति प्रियताको भी तृष्णा नागिन ने बुरी तरह डस लिया है। उन पर भी लोभ अप्रियता, आसक्ति, घृणा, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से होने वाले का जहर चढ़ने से उनकी आत्मा मूर्छित हो रही है। अनुयायियों / आन्तरिक प्रदूषण के निवारणार्थ समता का होना आवश्यक है, एवं भक्तों तथा शिष्य-शिष्याओं की संख्यावृद्धि करने का लोभ का जिससे मानवमात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति समभाव, मैत्री आदि भत उन धर्म धुरन्धरों के सिर पर हावी हो रहा है। जिसके लिए भावना जगे तथा रागद्वेषादि विभावों से निवृत्त होने के लिए अनेक प्रकार के हथकंडे अपनाये जाते हैं। इसके लिए वीतरागता / ज्ञाता-द्रष्टाभाव, ज्ञानचेतना तथा समभाव जागे। एवं समता के मार्ग को भी दाव पर लगा दिया जाता है, धर्म इसी प्रकार व्याधि, आधि और उपाधि से होने वाले बाह्य एवं सम्प्रदायों में परस्पर निन्दा पर परिवाद, अभ्याख्यान, द्वेष, आन्तरिक प्रदूषणों के निवारणार्थ समाधि का होना आवश्यक है। वैर-विरोध आदि के पाप-प्रदूषणों का प्रसार भी क्षम्य माना जाता / समाधि से शान्ति, तनावमुक्ति, आन्तरिक सन्तुष्टि आत्महै। अध्यात्मजगत् में इन पर्यावरण प्रदूषणों के कारण शुद्धता, / स्वरूपरमणता, आत्मगुणों में मग्नता आदि अनायास ही प्राप्त होगी। पवित्रता, शुचिता एवं संतोषवृत्ति आदि आज मृतप्राय हो रही है। समाधिस्थ होने के लिए जप, तप, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा, भावना / प्रमुख आन्तरिक प्रदूषणों के बढ़ जाने से आदि आलम्बनों का ग्रहण करना आवश्यक है। भयंकर प्रदूषणों का प्रसार इस त्रिवेणी संगम में मानव जीवन बाह्य एवं आन्तरिक इन चारों कषायों के होने वाले आन्तरिक प्रदूषणों के अतिरिक्त / प्रदूषणों से विमुक्त एवं शुद्ध होगा। DED 1. क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति-विभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशी, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥ -भगवद् गीता अ. 2 एएफसरन्यन्त एड SHONORSHASण एवण्यात
SR No.210738
Book TitleJain Dharm aur Paryavaran Santulan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy