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________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न १७ इस प्रकार जहाँ अनुयोगद्वारसूत्र में चतुविध प्रमाण और पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है, a नदी में द्विविध प्रमाण एवं पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। जैन परम्परानुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान, परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। जैनेतर अन्य दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना है । इस लौकिक मतानुसरण द्वारा अनुयोगद्वार तथा नन्दीसूत्र में मतिज्ञान ( इन्द्रियजन्य मतिज्ञान ) को प्रत्यक्ष के एक भाग के रूप में वर्णित करके लोकमान्यता को स्वीकृति दी गई तथा अन्यान्य दर्शनों से विरोध-भाव भी कम हुआ, परन्तु इससे प्रमाण एवं ज्ञान के समन्वय का विचार स्पष्ट और असन्दिग्ध न हुआ । लौकिक और आगमिक विचार का समन्वय करते समय अनुयोगद्वार में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया ( जिसको परवर्ती प्रमाण -मीमांसकों सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है ) । श्रुतज्ञान को आगम में रखा और अवधिज्ञान, मनःपर्याय तथा केवलज्ञान को पुनः प्रत्यक्ष प्रमाण कहा । परन्तु मनोजन्य मतिज्ञान को कौन-सा प्रमाण कहना तथा प्रमाण - पक्ष की दृष्टि से अनुमान और उपमान को कौन से ज्ञान कहना, यह बात स्पष्ट नहीं हुई । यह बात निम्न समीकरण से स्वयं स्पष्ट है ज्ञान १. (अ) इन्द्रियजन्यमतिज्ञान (ब) मनोजन्यमतिज्ञान - २. श्रुत ३. अवधि Jain Education International ४. मनः पर्याय ५. केवल ? ? = 1 = = प्रमाण प्रत्यक्ष ? आगम प्रत्यक्ष अनुमान आगम पूर्ण समन्वय कैसे हो ? न्यायशास्त्रानुसार मानस ज्ञान के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । सुख-दुःखादि विषयों से सम्बन्धित मानसज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान, उपमानादि से सम्बन्धित मानसज्ञान परोक्ष कहा जाता है | अतः मनोजन्यमतिज्ञान, जो जैन मतानुसार परोक्ष है, में अनुमान और उपमान को समाहित कर लेना अधिक समीचीन है । ऐसा करने से पाँच ज्ञान और चार प्रमाणों का समन्वय हो जाता है | परन्तु अनुयोगद्वार के रचयिता यहाँ एक कदम पीछे रहे हैं । नन्दीकार ने उसका सङ्केत तो दे दिया है, परन्तु वह इतना स्पष्ट नहीं है । मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों में गिनाया है । वस्तुतः इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष में और मानसमतिज्ञान को परोक्ष में गिना जाय तो विवाद ही समाप्त हो जाये । वास्तव में अनुमान आदि मानसज्ञान परोक्ष ही हैं, परन्तु इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहना तो लौकिक मान्यता का अनुसरण ही है । प्रमाण और पचविध ज्ञान का समन्वय जैनदृष्टि से प्रमाण और पाँच ज्ञानों की अवधारणा में स्पष्ट समन्वय करने का प्रयत्न उमास्वाति ने किया है। ज्ञान के मति, श्रुत आदि पाँच भेद बताकर तार्किक पद्धति की दृष्टि से ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210725
Book TitleJain Darshnik Sahitya me Gyan aur Praman ke Samanvay ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanji Patel
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf
Publication Year1987
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size687 KB
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