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२६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
द्वारा ही रूपादिकका ज्ञान क्यों होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि भिन्न-भिन्न अंगोंके सहयोगसे ही आत्मा अपनी स्वाभाविक चित्शक्तिके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान किया करती है। अतः सब अंगोंके विद्यमान रहते हुए भी, जिस ज्ञानके अनुकूल अंगका सहयोग जिस कालमें आत्माको प्राप्त होगा, उस कालमें वही ज्ञान उस आत्माको होगा, अन्य नहीं ।
पाँचवीं बात यह है कि पंचभूतोंके संयोगसे शरीरमें चितशक्तिका उत्पाद मान लेने पर भी हमारा काम नहीं चल सकता है । कारण कि ज्ञानकी मात्रा रूप, रस, गन्ध स्पर्श और शब्दका ज्ञान कर लेनेमें ही समाप्त नहीं हो जाती है । इन ज्ञानोंके अतिरिक्त स्मरण, एकत्व और सादश्य आदिके ग्रहणस्वरूप प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और शब्द-श्रवण अथवा अंगुल्यादिके संकेतोंके अनन्तर होनेवाला अर्थज्ञानरूप आगमज्ञान (शब्दज्ञान) ये ज्ञान भी तो हमें सतत होते रहते हैं। इस तरह इन ज्ञानोंके लिये किन्हीं दूसरे भूतोंका संयोग शरीरमें मानना आवश्यक होगा।
यदि कहा जाय कि ये सब प्रकारके ज्ञान हमें मन द्वारा हआ करते हैं तो यहाँ पर प्रश्न होता है कि शरीर तथा मन दोनोंमें एक ही चितशक्तिका उत्पाद होता है या दोनोंमें अलग-अलग चितशक्तियाँ एक साथ उत्पन्न हो जाया करती है अथवा मनमें स्वभाव रूपसे चित्शक्ति विद्यमान रहती है ?
___ पहले पक्षको स्वीकार करने पर मनसे ही स्मरणादि ज्ञान हो सकते हैं, स्पर्शन आदि बाह्य इन्द्रियोंसे नहीं, इसका नियमन करनेवाला कौन होगा ?
दूसरे पक्षको स्वीकार करने पर जिस कालमें हमें स्पर्शन आदि बाह्य इन्द्रियोंसे ज्ञान होता रहता है उसी कालमें हमें स्मरणादि ज्ञान होनेका भी प्रसंग उपस्थित हो जायगा, जो कि अनुभवके विरुद्ध है।
तीसरा पक्ष स्वीकार करने पर "पंचभूतोंके सम्मिश्रणसे शरीरमें चित्शक्तिका प्रादुर्भाव होता है" इस सिद्धान्तका व्याघात हो जायगा।
यदि कहा जाय कि स्वाभाविक चित्शक्ति-विशिष्ट मनको स्वीकार करनेसे यदि काम चल सकता है तो आत्मतत्त्वको माननेकी आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? तो इसका उत्तर यह है कि जैन-संस्कृतिमें एक तो मनको भी रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण विशिष्ट पुद्गल द्रव्य स्वीकार किया गया है; दुसरे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और बहुतसे पंचेन्द्रिय जीव ऐसे पाये जाते है जिनके मन नहीं होता है। इसलिए चित्शक्ति विशिष्ट-आत्मतत्त्वको स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। यह आत्मा ही मन तथा स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके सहयोगसे पदार्थोका यथायोग्य विविध प्रकारसे ज्ञान किया करता है।
तात्पर्य यह है कि जितने संज्ञी' पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके मन तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ विद्यमान रहती हैं। अतः वे इन सबको सहायतासे पदार्थोंका ज्ञान किया करते हैं । जो जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं उनके मन नहीं होता, उनमें केवल उक्त पाँचों इन्द्रियाँ ही विद्यमान रहती हैं। अतः वे मनके बिना इन पाँचों इन्द्रियोंसे ही पदार्थोंका ज्ञान किया करते हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवोंके मन और कर्ण इन्द्रियके अतिरिक्त चार इन्द्रियाँ, त्रीन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण और नेत्र इन्द्रियोंके अतिरिक्त तीन इन्द्रियाँ, द्वीन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण, नेत्र और नासिका इन्द्रियोंको छोड़कर शेष दो इन्द्रियाँ पायी जाती हैं एवं एकेन्द्रिय जीवोंके मन तथा कर्ण, नेत्र, नासिका और रसनाके अतिरिक्त सिर्फ एक स्पर्शन
१. संज्ञिनः समनस्काः ।-तत्त्वार्थसूत्र २-२४ ।
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