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३ / धर्म और सिद्धान्त : १९
अधर्म ये तीनों द्रव्य समान असंख्यात प्रदेशोंके रूपमें बहप्रदेशी द्रव्य हैं, अनन्त पुदगल सिर्फ एक प्रदेश वाले द्रव्य है और अनन्त' पुद्गल दो आदि संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशोंके रूप में बहुप्रदेशी द्रव्य माने गये हैं। इसी प्रकार आकाशको अनन्त प्रदेशोंके रूपमें बहप्रदेशी और संपूर्णकालोंमेंसे प्रत्येल कालको एकप्रदेशी५ द्रव्य स्वीकार किया गया है। यहाँपर इतना ध्यान और रखना चाहिये कि संपूर्ण काल द्रव्य असंख्यात होकर भी उतने हैं, जितने कि प्रत्येक जीवके या धर्म अथवा अधर्म द्रव्यके प्रदेश बतलाये गये हैं।
इन सब द्रव्योंमेंसे आकाश द्रव्य सबसे बड़ा और सब ओरसे असीमित विस्तार वाला द्रव्य है तथा बाकीके सब द्रव्य इसी आकाशके अन्दर ठीक मध्यमें सीमित होकर रह रहे हैं । इस प्रकार जितने आकाशके अन्दर उक्त सब द्रव्य याने सब जीव, सब पद्गल, धर्म, अधर्म, और सब काल विद्यमान हैं उतने आकाशको लोकाकाश और शेष समस्त सीमारहित आकाशको अलोकाकाश नामसे पुकारा गया है।' यहाँपर भी इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि आकाशके जितने हिस्से में धर्म द्रव्य अथवा अधर्म द्रव्यका जिस रूपमें वास है वह हिस्सा उसी रूपमें लोकाकाशका समझना चाहिये । इस तरह लोकाकाशके भी धर्म अथवा अधर्म द्रव्यके समान ही असंख्यात प्रदेश सिद्ध होते हैं तथा धर्म और अधर्म द्रव्योंकी ही तरह सम्पूर्ण अनन्त जीव द्रव्यों, संपूर्ण अनन्त पुद्गल द्रव्यों तथा संपूर्ण असंख्यात काल द्रव्योंका निवास भी आकाशके इसी हिस्सेमें समझना चाहिये।
धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंकी बनावटके बारेमें जैन-ग्रन्थोंमें लिखा है कि जब कोई मनुष्य यथासंभव अपने दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथोंको अपनी कमरपर रखकर सीधा खड़ा हो जावे, तो जो आकृति उस मनुष्यकी होती है वही आकृति धर्म और अधर्म दोनों द्रव्योंकी समझनी चाहिये । यही कारण है कि लोकको पुरुष के आकार वाला बतलाया गया है और जिसे--ब्रह्माण्ड या परब्रह्म भी इसीलिए कहा गया है।
धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यको बनावटके बारेमें जैन-ग्रन्थोंमें यह भी लिखा है कि इन दोनों द्रव्योंकी ऊँचाई चौदह रज्जु, मोटाई उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु और चौड़ाई पूर्व-पश्चिम नीचे बिल्कुल अन्तमें सात रज्जु, ऊपर क्रमसे घटते वटते मध्यमें सात रज्जुकी ऊँचाईपर एक रज्जु, फिर इसके ऊपर क्रमसे बढ़तेबढ़ते साढ़े तीन रज्जकी ऊँचाईपर पांच रज्जु तथा उसके भी ऊपर क्रमसे घटते-घटते बिल्कूल अन्तमें साढ़े तीन रज्जुकी ऊँचाईपर एक रज्जु हैं ।
१. असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ८। २. नाणोः ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ११ । यहाँपर 'अणु' एकप्रदेशी द्रव्य है' यही अर्थ ग्रहण किया,
गया है।-पंचाध्यायी, अध्याय १ श्लोक ३६ । ३. संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १० ।
यहाँपर 'च' शब्दसे अनन्तसंख्याका भी ग्रहण किया गया है। ४. आकाशस्यानन्ताः ।-तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ९।। ५. देखिये, टिप्पणी नं० ७ “कालाणुर्वा यतः स्वतः सिद्धः" । ६. ते कालाणू असंखदव्वाणि ।-द्रव्यसंग्रह गा० २२ । ७. लोकाकाशेऽवगाहः । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १२ । ८. पंचाध्यायी, अ० २, श्लोक २२ । ९. तत्त्वार्थराजवातिक-५-३८ ।
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