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________________ क्रियापरिणतानां यः स्वयमेव क्रियावताम् । आदधाति सहायत्वं स धर्मः परिगीयते । जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये गत्युपग्रहे । जलवन्मत्स्यगमने धर्मः साधारणाश्रयः॥' अर्थात् स्वयं क्रिया रूप परिणमन करने वाले क्रियावान् जीव और पुद्गलों को जो सहायता देता है, वह धर्मद्रव्य कहलाता है। जिस प्रकार मछली के चलने में जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गलों के चलने में धर्मद्रव्य साधारण निमित्त है। __ धर्मद्रव्य असंख्यात-प्रदेशी एवं एक है, अखण्ड है। किसी का कार्य नहीं।' उदासीन अर्थात् निष्क्रिय है। इसका अस्तित्व लोक के भीतर तो साधारण है, पर लोक की सीमाओं पर नियन्त्रण के रूप में है । सीमाओं पर ही पता चलता है कि धर्मद्रव्य भी कोई अस्तित्वशाली द्रव्य है, जिसके कारण जीव तथा पुद्गल अपनी यात्रा उसी सीमा तक करने को विवश है, उसके आगे नहीं जा सकते । आगे धर्मद्रव्य न होने के कारण जीव और पुद्गल में गति सम्भव नहीं है।' " ह . अधर्म लोक में जिस प्रकार जीव और पुद्गलों की गति में धर्मद्रव्य सहायक है, उसी प्रकार उनकी स्थिति में अधर्मद्रव्य सहायक है। अधर्म भी रूपादि रहित होने से कारण अमूर्तिक है । यह भी निष्क्रिय है। यद्यपि यह जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक है, किन्तु यह जाते हुए जीव और पुद्गलों को स्वयं नहीं रोकता । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दवमधमक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥४ ___अर्थात् जैसे धर्मद्रव्य गति में सहायक है, वैसे ही अधर्मद्रव्य स्थिर होने की क्रिया से युक्त जीव-पुद्गलों के लिए पृथ्वी के समान सहकारी कारण है । जैसे पृथ्वी अपने स्वभाव से अपनी अवस्था लिए पहले से स्थिर है और घोड़ा आदि पदार्थों को जबरदस्ती नहीं ठहराती, अपितु यदि वे ठहरना चाहें तो उनकी सहायक होती है। अथवा जैसे वृक्ष पथ में चलते पथिक को स्वयं नहीं रोकते, अपितु यदि वे रुकना चाहें तो उन्हें छाया अवश्य देते हैं, ऐसे ही अधर्मद्रव्य भी अपनी सहज अवस्था में स्थित रहते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक कारण होते हैं। अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी, एक, नित्य, अखण्ड तथा किसी का कार्य नहीं है। उदासीन अर्थात् निष्क्रिय है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है तथा उसी के बराबर भी है। इसके अस्तित्व का पता लोकाकाश की सीमा पर जाना जाता है। लोकाकाश की सीमा समाप्त होते ही वहां धर्मद्रव्य भी समाप्त हो जाता है तब द्रव्यों (जीव और पुद्गलों) की गति उससे आगे नहीं हो पाती और स्थिति के लिए इसकी सहकारिता अपेक्षित होती है। धर्म और अधर्मद्रव्य के कारण ही आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद हुए हैं । जहां धर्माधर्म द्रव्य है वह लोकाकाश है तथा जहां ये नहीं है, वहां अलोकाकाश है। गति तथा स्थिति दोनों के ही कारण नहीं होती है। ये दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं, किन्तु एक ही क्षेत्र में रहने के कारण अविभक्त हैं। सिद्धसेन दिवाकर के मन में निश्चय नय से जीव और पुद्गल-ये दो ही समूर्त (शुद्ध परिगृहीत) पदार्थ हैं ।। आकाश लोक में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा काल को अवकाश देने वाला द्रव्य है, साथ ही यह स्वयं अपने को भी अवकाश देने वाला है। रूपादि से रहित होने के कारण यह अमूर्तिक है । लोक में कोई ऐसा द्रव्य होना चाहिए जो सभी को अवकाश दे सके । यद्यपि ऐसा देखा जाता १. तत्वार्थसार, ३/३३-३४ २. पंचास्तिकाय, गाथा ८३-८४ ३. पं० महेन्द्र कुमार : जैन दर्शन, वर्णी ग्रन्थमाला, १६७४, १० १३१ ४. पंचास्तिकाय, गाथा ८६ ५. वही, गाथा ८७ ६. निश्चय द्वानिशिका-२४, १९/२४-२६ ७. पंचास्तिकाय, गाथा १० ६२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210692
Book TitleJain Darshan me Dravya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size2 MB
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