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डलाता है । यह
को चुनी चूणि तथा मेष
लक्षण है, जैसे--मेघ आदि की आकृति ।'
भेद--एक पुद्गल पिण्ड का भंग होना भेद कहलाता है । यह उत्कर, चूणिका, चूर्ण, खण्ड, अणुचटन और प्रतर रूप छह प्रकार का है। लकड़ी या पत्थर आदि का आरी से भेद उत्कर है। उड़द, मूंग आदि की चुनी चूर्णिका है। गेहूं आदि का आटा चूर्ण है । घट आदि के टुकड़े खण्ड हैं । गर्म लोहे पर घन-प्रहार से जो स्फुलिंग (कण) निकलते हैं, वे अणुचटन हैं तथा मेघ, मिट्टी, अभ्रक आदि का बिखरना प्रतर है।
अन्धकार-अन्धकार भी पौद्गलिक स्वीकार किया गया है। नेत्रों को रोकने वाला तथा प्रकाश का विरोधी तम-अन्धकार है।
छाया-शरीर आदि के निमित्त जो प्रकाश आदि का रुकना है, वह छाया है। यह भी पौद्गलिक है। छाया दो प्रकार की हैएक छाया वह जिसमें वर्ण आदि अविकार रूप में परिणमते हैं, यथा-पदार्थ जिस रूप और आकार वाला होता है दर्पण में उसी रूप और आकार वाला दिखाई देता है । आधुनिक चलचित्र इसी के अन्तर्गत आएगा। दूसरी छाया वह है, जिसमें प्रतिबिम्ब मात्र पड़ता है, जैसे धूप या चांदनी में मनुय की आकृति है।'
आतप और उद्योत–सूर्य आदि का ऊष्ण प्रकाश आतप कहलाता है तथा चन्द्रमा-जुगनूं आदि का ठण्डा प्रकाश उद्योत कहलाता है। जैन-दर्शन में वे भी पौद्गलिक स्वीकार किये गए हैं ।४
इस प्रकार जैन-दर्शन में पुद्गल तथा परमाणु के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचना उपलब्ध होती है। आज के राकेट आदि की गति वस्तुतः परमाणु की गति से कम है । अतः परमाणु को उत्कृष्ट गति एक समय में १४ राजू बताई गयी है। (मन्द गति से एक पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश पर से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना काल लगता है उसे एक समय कहते हैं।) 'एक समय' भी काल की सबसे छोटी इकाई है। वर्तमान एक सेकण्ड में जैन पारिभाषिक असंख्यात समय होते हैं। राज सबसे बड़ा प्रतीकात्मक माप है-एक राज में असंख्यात किलोमीटर समा जायेंगे। इसी कारण विश्वविख्यात दार्शनिक विद्वान् डा. राधाकृष्णन् ने लिखा है-'अणुओं के श्रेणी-विभाजन से निर्मित वर्गों की नानाविध आकृतियां होती हैं। कहा गया है कि अणु के अन्दर ऐसी गति का विकास भी सम्भव है जो अत्यन्त वेगवान् हो, यहां तक कि एक क्षण के अन्दर समस्त विश्व को एक छोर से दूसरे छोर तक परिक्रमा पर आए।
धर्म यहां धर्म-अधर्म के पुण्य पाप गृहीत नहीं हैं। अपितु ये दोनों जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं । धर्म का अर्थ है 'गति में सहायक द्रव्य' । दार्शनिक जगत् में जैन दर्शन के सिवाय किसी ने भी धर्म और अधर्म की स्थिति नहीं मानी है। वैज्ञानिकों में सबसे पहले न्यूटन ने गति तत्व (Medium of motion) को स्वीकार किया है। प्रसिद्ध गणितज्ञ अलबर्ट आईन्स्टीन ने भी गति तत्व की स्थापना करते हुए कहा है-'लोक परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है, लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का द्रव्य का अभाव है जो गति में सहायक होता है। वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत ईथर (Ether) गति तत्व का ही दूसरा नाम है। और यही जैन दर्शन का धर्मद्रव्य है। धर्मद्रव्य अमूर्तिक स्वीकार किया गया है। यह रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है। संसार के निर्माण के लिए पदार्थों की गति और स्थिरता के किन्हीं नियमों में बद्ध होना आवश्यक है। धर्म गति का और अधर्म स्थिरता का सूचक है। यदि धर्म न हो तो पदार्थ चल ही नहीं सकेंगे और यदि अधर्म न हो तो पदार्थ सदा-सदा चलते ही रहेंगे। धर्मद्रव्य क्रिया रूप परिणमन करने वाले क्रियावान् जीव और पुद्गलों को गति में सहायक होते हैं। यहां यह ध्यातव्य है कि धर्मद्रव्य स्वयं निष्क्रिय है, वह स्वयं न तो चलता है और न दूसरों को चलने के लिए प्रेरित करता है, अपितु वह उनकी गति में सहायक अवश्य है । जिस प्रकार जल न तो स्वयं चलता है और न ही मछली आदि को चलने के लिए प्रेरित करता है, किन्तु मछली के चलने में सहायक होता है। वैसे ही धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गलों के चलने के सहायक होता है। जैसे पानी के बिना मछली का चलना सम्भव नहीं वैसे ही धर्म के बिना जीव और पुद्गलों की गति असम्भव है । आचार्य अमृतचंद्र ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में लिखा है :
१. तत्वार्थसार, ३/६४ २. वही, ३/७२ ३. वही, ३/६९-७० ४. वही, १/७१ ५. श्री उत्तमचन्द जैन : जैन दर्शन का तात्विक पक्ष परमाणुवाद (जैन दर्शन और संस्कृति, प० ३६-३७) निबन्ध से ६. डा० राधाकृष्णन् : भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, १९७३, पृ० २६२ ७. द्रष्टव्य, जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृ० १८८
जैन दर्शन मीमांसा
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