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१ - प्राणातिपात! २ - मृषावाद ३ - अदत्तादान! ४ - मैथुन! ५ - परिग्रह! ६ - क्रोध! ७ - मान! ८- माया! ९- लोभ!
१० - राग! ११ - द्वेष! १२ - कलह! १३ - अभ्याख्यान १४ - पैशुण्य १५ - परनिन्दा! १६ - रति - अरति! १७ - माया मृषावाद! १८ - मिथ्यादर्शन!
आध्यात्मिक दृष्टि से पुण्य और पाप ये दोनों बन्धन रुप है। अतएव मोक्ष - साधना के लिये दोनों हेय हैं। पुण्य सोने की बेड़ी के समान है, और पाप लोहे की बेड़ी के समान है। पूर्ण मुक्त होने के लिये और वीतरागता प्राप्त करने के लिये पुण्य और पाप इन दोनों से मुक्त होना होगा।
५ - आश्रव - पुण्य-पाप रुप कर्मों के आने के द्वार "आश्रव' है। आश्रव द्वारा ही आत्मा कर्मों को ग्रहण करती है। मन, वचन और काया के क्रिया रुप योग आश्रव है। जैसे एक तालाब है। उस में नाली से आकर जल भरता है। उसी प्रकार आत्मा रुपी तालाब में हिंसा, झूठ आदि पाप कार्यरुप नाली द्वारा कर्म रुप जल भरता है। अर्थात् आत्मा में कर्म के आने का मार्ग आश्रव हैं।
आत्मा में कर्म के आने के द्वार रुप आश्रव के पांच भेद हैं।
१- मिथ्यात्त्व। २ - अविरति।
३ - प्रमाद। ४ - कषाय। ५- योग।
अध्यात्म साधना के समुत्कर्ष के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि आत्मविकास के बाधक तत्त्व के स्वरूप का परिज्ञान करके उससे मुक्त होनेका प्रयत्न करे। आश्रव जीवका विभाव में रमण करने का कारण होता है। इसलिये विभाव और स्वभावको समझ कर स्वभाव में स्थित होना ही -
१७क - सर्वार्धसिद्धि ६/२! ख - सूयकृतांग शीलांक वृत्ति २/५-१७! ग - अध्यात्मसार १८/१३१! घ- आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति, मल-हेम-हि.प्र. ८४
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अंतर की प्रार्थना कमी निष्फल नहीं होती और नि:स्वार्थ भाव से परकल्याण हेतु की गयी प्रार्थना तो कभी निष्फल हो ही नहीं सकती।
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