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की मौलिक विचारधारा जो कि अपने आप में एक विलक्षण है, परिपूर्ण रुप से सत्यमय एवं श्रदेय रुप है। विशुद्ध चैतन्य यह जीव का स्वभाव है।
इसी सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि जीव का शरीर के साथ तादाम्य सम्बन्ध है। वह शरीर से सर्वथाअभिन्न नहीं है। क्यों कि शरीर के नाश के साथ उस का विनाश नहीं होता है। कर्मोपाधि से उन्मुक्त हो जाने के कारण मुक्त जीवों के कोई भेद प्रभेद नहीं है। किन्तु कर्म सहित होने से संसारी जीवों के मुख्य दो भेद है - स्थावर और त्रस! ये दोनों भेद संसारी जीव की अपेक्षा से किये गये है! इन दो भेदों में संसारस्थ अनन्त जीवों का
समग्र भावसे २- अजीवतत्व-जीवतत्व का-प्रतिपक्षी अजीव तत्व है। अर्थात जीव के विपरीत "अजीव" है। जिस में चेतना नहीं है, जो सुख और दुःख की अनुमति भी नहीं कर सकता है। वह अजीव है। अजीव को जड अचेतन भी कहते है। अजीव तत्व के पाँच भेद हैं। उन के नाम ये हैं। १धर्मास्तिकाय।
३ आकाशास्त्रिकाय। २ अधर्मास्तिकाय।
४ काल।
५ पुदगलास्तिकाय! उक्त पांच मे दों मे, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये चार अजीव तत्व अमूर्त है और पुदगल मूर्त है। अमूर्त के लिये अरुपी और मूर्त के लिये रुपी शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस में, रुप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं। और जिस में ये चारों गुण नहीं पाये जाते है, उन्हें क्रमश मूर्त और अमूर्त कहते हैं।
१-धर्मास्तिकाय-यह गति सहायक तत्व है। जिस प्रकार मछली को गमन करने में जल सहकारी निमित्त है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को धर्मास्तिकाय द्रव्य गमन करने में सहकारी कारण माना गया हैं।
२-अधर्मास्तिकाय-यह स्थिति सहायक तत्व है। जीव और पुदगल इन दोनों को ठहराने में उसी प्रकार सहायक है, जैसे ८-स्थानांग सूत्र २/१/५७ ! ९-उत्तराध्ययन सूत्र-२८/७ ! १०- उत्तराध्ययन सूत्र-२८/९! वृक्ष की शीतल छाया पधिक को ठहराने में सहायक है।
यह धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य जीव - पुद्गल द्रव्यों को न तो बलात् चलाते हैं और न ठहराते है। किन्तु विभिन्न रुप से उनके लिये सहायक बनते हैं।
३-आकाशास्तिकाय-जो सब११ द्रव्य को अवकाश देता है। वह आकाश है। जीव, अजीव आदि
धर्मास्तिकाय- क्रमशं मूर्त अस्पा ये चारों ग
८-स्थानांग सूत्र, २/१/५७. ९-उत्तराध्ययन सूत्र-२८/७. १०. उत्तराध्ययन सूत्र - २८/९. ११. तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन-५ सूत्र-१८.
अंतर में जब अधीरता हो तब आराम भी हराम हो जाता है।
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