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________________ आचार्य अमृतचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पर द्रव्य और आत्म तत्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है तो फिर कर्ता कर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है। नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृ कर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ।। विभिन्न द्रव्यों के बीच सर्व प्रकार के सम्बन्ध का निषेध ही वस्तुतः पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा है। पर के साथ किसी भी प्रकार के संबंध की स्वीकृति परतन्त्रता को ही बताती है। अन्य सम्बन्धों की अपेक्षा कर्ताकर्म सम्बन्ध सर्वाधिक परतन्त्रता का सूचक है । यही कारण है कि जैन दर्शन में कर्तावाद का स्पष्ट निषेध किया है । कर्तावाद के निषेध का तात्पर्य मात्र इतना नहीं है कि कोई शक्तिमान ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है अपितु यह भी है, कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है। किसी एक महान शक्ति को समस्त जगत का कर्ता-हर्ता मानना एक कर्तावाद है तो परस्पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का कर्ता हर्ता मानना अनेक कर्तावाद । जब जब कर्तावाद या अकर्तागद की चर्चा चलती है तब तब प्रायः यही समझा जाता है कि जो ईश्वर को जगत का कर्ता माने वह कर्तावादी है और जो ईश्वर को जगत का कर्ता न माने बह अकर्तावादी। चूंकि जैन दर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता, अतः वह अकर्तावादी दर्शन है। जैन दर्शन का अकर्तावाद मात्र ईश्वरवाद के निषेध तक ही सीमित नहीं, किन्तु समस्त पर कर्तव्य के निषेध एवं स्वकर्त त्व के समर्थन रूप है। अकर्तावाद का अर्थ ईश्वर कर्तुत्व का निषेध तो है, पर मात्र कर्तृत्व के निषेध तक भी सीमित नहीं, स्वयंकर्तृत्व पर आधारित है। अकर्तावाद यानी स्वयं कर्तावाद । प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है। उसके परिणमन में पर का रंचमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है। स्वयं कर्तृत्व होने पर भी उसका भार जैन दर्शन को स्वीकार नहीं, क्योंकि वह सब सहज स्वभाववत् परिणमन है । यही कारण है कि सर्वश्रेष्ठ दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ समयसार कर्ताकर्म अधिकार में ईश्वरबाद के निषेध की तो चर्चा तक ही नहीं की और संपूर्ण बल कर्तृत्व के निषेध एवं ज्ञानी को विकार के भी कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करने पर दिया । जो समस्त कर्तृत्व एवं कर्मत्व के भार से मुक्त हो, उसे ही ज्ञानी कहा है। कुन्दकुन्द की समस्या अपने शिष्यों को ईश्वरवाद से उभारने की नहीं वरन् मान्यता में प्रत्येक व्यक्ति एक छोटा-मोटा ईश्वर बना हुआ है और माने बैठा है कि "मैं अपने कुटुम्ब, परिवार, देश व समाज को पालता हूँ, उन्हें सुखी करता हूँ और शत्रु आदिक को मारता हूँ व दुःखी करता हूँ अथवा मैं भी दूसरे के द्वारा सुखीदुखी किया जाता हूं या मारा-बचाया जाता हूँ।" इस मिथ्या ३. आचार्य अमृतचन्द्रः समयसार कलश २०० मान्यता से बचाने की थी। अत: उन्होंने कर्तावाद संबंधी उक्त मान्यता का कठोरता से निषेध किया है उन्हीं के शब्दों में: जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परोहिं सत्तोहिं । सो मूढो अण्णाणी वाणी एतो दु विवरोदो ॥२४॥ जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । सो म ढ़ो अण्णाणी णाणी एनो दु विवरीदो ॥२५०।। जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिइ सुहिदे करोमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरोदी ।।२५३।। दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमेचिमि । जो एसा मूढमई णिरत्यया सा ह दे मिच्छा ।।२६६।। जो यह मानता है कि मैं पर-जीबों को मारता हूँ और पर-जीव मुझे मारते हैं-वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। जो जीव यह मानता है कि मैं पर जीवों को जिलाता (रक्षा करता) हूँ और परजीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। ___ जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को सुखी-दुखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुखी करते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है । ____ मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बांधता हूँ तथा छुड़ाता हूँ ऐसी जो यह तेरी मूढ़मति (मोहित बुद्धि) है वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है। उनका अकर्तृत्ववाद “मात्र ईश्वर जगत का कर्ता नहीं है" के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित है। वह भी इसलिए कि वे जैन हैं और जैन दर्शन ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं मानता है, अतः वे भी नहीं मानते । ईश्वर को कर्ता नहीं मानने पर भी स्वगं-कर्तृत्व उनकी समझ में नहीं आता। पर के साथ आत्मा का कारकता के संबंध का निषेध प्रवचनसार की 'तत्व प्रदीपिका" टीका में इस प्रकार किया है: अतो न निश्चयतः परेणसहात्मनः कारकत्व संबंधोऽस्ति । जीव कर्म का और कर्म जीव का कर्ता नहीं है। इस बात को पंचास्तिकाय में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है: कुव्वं सगं सहाव अत्ता कत्ता समस्स भावस्स । ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ।।६।। कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममणामं ।। जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ।।६२।। कम्म कम्म कुव्वदि जदि सा अप्पा करेदि. अप्पाणं । किध तस्स फलं भुणादि अप्पा कम्मं च देहि फलं ।।६७।। अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा अपने भाव का कर्ता है, पुद्गल कर्मों का नहीं। ऐसा जिन वचन जानना चाहिए। ४, आचार्य कुन्दकुन्द (समयसार, बंध अधिकार) राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210662
Book TitleJain Darshan ka Tattvik Paksha Vastu Swatantrya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1977
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size524 KB
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