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मनुष्य के बत्तीस उत्तम लक्षणों की गणना में विभिन्न ग्रंथों थोड़ा अंतर है। गुण की दृष्टि से इस प्रकार ३२ लक्षण गिनने में आते हैं। गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष के छठे भाग में पृष्ठ ५९५ पर लिखा है
इह भवति सप्तरक्तः षडुन्नत: पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च । त्रिविपुललघुगम्भीरो, द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान् ।
४. जिह्वा ५. ओष्ठ ६. तालु,
तत्र सप्त रक्तानि १ नख २. चरण
७. नेत्रान्ताः ।
१. कक्षा २. हृदयं
१. दन्ता २. त्वक् १. नयने २. हृदयम्
षडुत्रतानिपञ्चसूक्ष्माणिपञ्चदीर्घाणि
१. भालम् २. उर:
त्रीणि विस्तीर्णानि - त्रीणि लघुनित्रीणि गम्भीराणि १. सत्वम् २. स्वरः
१. ग्रीवा २. जंघा
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
३. हस्त
३. ग्रीवा ३. केशा
३. नासिका ४. भुजौ च
३. वदनं च ।
३. मेहनं च । ३. नाभिश्च ।
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५. नखा ६. मुखं च ।
५. नखाश्च
४. नासा
४. अंगुलिपर्वाणि
१. नख २. हाथ. ३. पैर, ४. जीभ ५. ओठ. ६. तालु ७. नेत्र के कोण ये सात लाल वर्ण के; ८. कांख, ९. वक्षस्थल, १० गर्दन, ११. नासिका, १२. नख, १३ मूँछ ये छः ऊँचे १४. दाँत, १५. त्वचा, १६. बाल १७. अंगुलि के टेरवे १८. नाखून ये पाँच छोटे व पतले; १९. आंखें, २० हृदय २१. नाक, २२-२३ भुजा -द्वय ये पाँच लम्बे; २४. ललाट, २५ छाती २६. मुख ये तीन विशाल; २७, डोक, २८. जाँघ, २९. पुरुषचिह्न ये तीन लघु और ३० सत्व ३१. स्वर, ३२. नाभि ये तीन गंभीर हों तो ऐसे बत्तीस लक्षणों वाला पुरुष श्रेष्ठ व भाग्यशाली माना जाता है।
शरीर के अंगोपांगों में जितने अधिक उत्तम लक्षण हों. उतना वह भाग्यशाली माना जाता है। अधिकतम १००८ उत्तम लक्षणों की गणना की जाती है। ऐसे उत्तम लक्षण जिसमें होते हैं वह व्यक्ति श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम गिना जाता है। जैसे मान्यतानुसार बलदेवों वासुदेवों में १०८ और चक्रवर्ती और तीर्थकरों में १००८ उत्तम लक्षण होते हैं।
लक्षणों की दृष्टि से तीर्थंकरों का शरीर श्रेष्ठ माना जाता है। शुभकर्म के उदय से वे उत्तम लक्षण प्राप्त करते हैं।
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बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं व बहुतराईं च | देहे देहीणं लक्खणाणि सुभकम्म जाणिताणि ।
ये सब देह के बाह्य लक्षण हैं, स्वभाव अथवा प्रकृति के लक्षण आभ्यंतर लक्षण हैं। इनकी विविधता का कोई पार नहीं है। दुविहा या लक्खणा खलु अब्भंतर बाहिर उ देहीणम् । बाहिया सुरवण्णा अंतो सब्भाव सत्ताई।
बाह्य लक्षणों के अंगभूत और अंगबाह्य ये दो प्रकार होते हैं। शरीर में रहे हुए और सामान्य रीति से जिन्हें निकाला न जा सके ऐसे लक्षण अंगभूत हैं तथा वस्त्राभूषण इत्यादि द्वारा दृष्ट लक्षण अंगबाह्य कहलाते हैं। सेना के सैनिकों, साधु सन्यासियों, अस्पताल के डाक्टर, नर्सों आदि का परिचय उनके गणवेश लक्षणों से हो जाता है, परन्तु वे बदले या निकाले जा सकते हैं। ऐसे लक्षण हैं। मूँछ, दाढ़ी, नख, मस्तक के बाल आदि अंगभूत लक्षणों में भी फेरबदल हो सकता है।
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अभिधानचिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में श्री हेमचन्द्राचार्य शरीर के अंगोपांगों में स्थित बत्तीस मंगल आकृतियों से सूरि द्वारा बताये अनुसार तीर्थकरों के लांछन शरीर के दक्षिण बत्तीसलक्षणा पुरुष कहलाता है। वे इस प्रकार हैं १. छत्र २. कमल ३. धनुष ४. रथ ५. वज्र ६. कछुआ, ७. अंकुश, ८. बावड़ी, ९. स्वस्तिक, १०. तोरण ११. सरोवर, १२. पंचानन, १३ वृक्ष, १४. शंख, १५, चक्र, १६. हाथी, १७. समुद्र, १८. कलश, १९. महल, २०. मत्स्य युगल, २१. जव २२. यज्ञ स्तंभ, २३ स्तूप, २४. कमंडलु, २५. पर्वत २६. चामर, २७. दर्पण, २८. उक्षा २९. पताका, ३०. लक्ष्मी ३१. माला, ३२. मोर ।
(दायें) भाग में होते हैं । आवश्यकनियुक्ति में गाथा १०८० में कहा गया है कि ऋषभदेव भगवान की दोनों जंघाओं पर वृषभ का चिह्न था, इसलिए वे वृषभजिन के नाम से जाने जाते हैं और उनकी माता को प्रथम वृषभ के दर्शन हुए थे।
तीर्थंकर का सर्वश्रेष्ठ अंगभूत अर्थ, भाव तथा जीवन की दृष्टि से सर्वथा अनुरूप ऐसा कोई एक लक्षण लांछन के नाम से जाना जाता है। सभी लक्षणों को लांछन के रूप में नहीं देखा जा सकता है।
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तीर्थकर की देह पर लांछन उनके नामकर्मानुसार होते हैं। तदुपरांत वह लांछन उनकी प्रकृति को बताने वाले प्रतिनिधि के रूप में गिना जाता है। लांछन बैल, हाथी, घोड़ा, सिंह, मगरमच्छ, बंदर, महिष, गैंडा, हिरन आदि पशुओं के; क्रौंच, बाज, बगैरह पक्षियों के; सूर्य-चंद्र जैसे ज्योतिष्कों के; स्वस्तिक नन्दावर्त, कमल, कलश, शंख आदि मंगल रूप माने जाने वाले प्रतीकों आदि विविध प्रकार के होते हैं। इन समस्त लांछनों का स्वयं का कोई उत्कृष्ट गुण होता है। यह उत्कृष्ट गुण अनंत गुणधारक तीर्थंकर
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