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जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप
राजीव प्रचंडिया, एडवोकेट
विश्व के समस्त दर्शनों में भारतीय दर्शन और भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका मूल कारण है जैन दर्शन का सृष्टि-पृथ्वी, तत्त्व-द्रव्य, नयप्रमाण, ज्ञान-ध्यान, कर्म-अवतारवाद, अनेकान्त-स्याद्वाद तथा अहिंसा-अपरिग्रहवाद आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर सूक्ष्म-वैज्ञानिक-विश्लेषणात्मक चिन्तन । तात्त्विक विवेचन, विषादयुक्त वातावरण में समत्व का संचार, स्थायी सुख-शान्ति का स्रोत तथा सम्यक् श्रम-परिश्रम पुरुषार्थ अर्थात् जन्म-जरा-मृत्यु से सदा-सदा के लिये मुक्त होने की भावना-आस्था का जागरण आदि
आत्मिक शक्तियों को प्रस्फुटित करने में सर्वथा सक्षम है। बस, आज आवश्यकता है इसके स्वरूप को ठीक-ठीक समझकर जीवन में उतारने की। निश्चय ही यह सम्यग-दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक चारित्र का मिला जुला पथ प्रशस्त करायेगा। .
सारा जगत, लोक व्यवस्था, तत्त्व पर अवलम्बित है। चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग, औपनिषद तथा बौद्ध आदि समस्त नास्तिक-नास्तिक दर्शनों का मुख्य विषय तात्त्विक विवेचना का रहा है। वैदिकदर्शन में परमात्मा तथा ब्रह्म के लिये न्यायदर्शन में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल जाति और निग्रहस्थान नामक सोलह पदार्थों में, वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छह तत्त्वों में, सांख्यदर्शन में जगत के मूल कारण के रूप में पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, मन, और पंच महाभूत नामक पच्चीस तत्त्वों में, बौद्धदर्शन में स्कन्ध, आयतन, धातु नामक तीन तत्त्वों में तथा चार्वाकदर्शन में पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि नामक चार तत्त्वों में तत्त्व की विवेचना स्पष्टतः परिलक्षित है। यद्यपि अपनी-अपनी दृष्टि से इन दर्शनों ने तत्त्व का प्रतिपादन किया है किन्तु जैनदर्शन की तत्त्वनिरूपणा अत्यन्त मौलिक एवं परम वैज्ञानिक है। वह संसारी जीव के विकास-ह्रास, सुख-दुःख तथा जन्म-मरण आदि अनेक समस्याओं का सन्दर समाधान प्रस्तुत करती है। वास्तव में जीवन की गत्यात्मकता में तत्त्व की भूमिका अनिर्वचनीय है।
तत्त्व के स्वरूप को स्थिर करते हुए जैनदर्शन में जिस वस्तु का जो भाव है, उसे तत्त्व कहा है।' अर्थात् वस्तु का सच्चा स्वरूप तत्त्व कहलाता है। जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु के प्रति वही भाव रखना तत्त्व है। यह अनादि निधन है, स्वसहाय और निर्विकल्प है, इसलिए स्वभाव से सिद्ध है, सत् है और शाश्वत है अर्थात् नवीन अवस्थाओं की उत्पत्ति एवं पुरानी अवस्थानों का विनाश होते रहने पर भी अपने स्वभाव का कभी परित्याग नहीं करता है अर्थात् भूत, वर्तमान व भविष्य तीनों काल में वह सदा विद्यमान रहता है ।२ जैनागम में परमार्थ
| धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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