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४३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
वि० सं० १७११ में रचित इस कृति के अन्त में विनयशील उपाध्याय ने विद्वानों से त्रुटियों के शोधन की प्रार्थना भी की है
कचिद् प्रमादाद्वतयं मयास्मिरछन्दोव्वर्तसे स्वकृते यदुक्तम् । संशोध्य तन्निर्मलयन्तु सन्तः विद्वत्सु विज्ञप्तिरियं मदीया ॥
जयदेवछन्दम् गृत्तरत्नाकर के टीकाकार मुहू ने "श्वेतपट" विशेषण लगाकर कवि जयदेव के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के होने की सम्भावना उत्पन्न कर दी है। इस ग्रन्थ के रचयिता कवि जयदेव ने वर्धमान को नमस्कार कर जैन होने का अन्तः साक्ष्य भी दिया है ।
जयदेव ने अपना ग्रंथ जयदेवछन्दस पिंगल शिरोमणि को आधार मानकर बनाया। आठ अध्यायों में विभक्त यह प्रथम जैन काव्य है, जिसमें वैदिक छन्दों का विवेचन हुआ है। इस ग्रंथ में वैदिक एवं लौकिक संस्कृत के छन्दों का ही विवेचन है। प्रारम्भ एवं अन्त भी पिंगल से प्रभावित है किन्तु लौकिक छन्दों के निरूपण में उनकी शैली पिंगल से भिन्न हो गयी है । स्वयंभू एवं हलायुध ने जयदेव के मत की समीक्षा की है। अभिनवगुप्त, नमि साधु, हेमचन्द्र, त्रिविक्रम,
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अमरचन्द्र सुल्हण गोपाल, नारायण, रामचन्द्र आदि साहित्यशास्त्रियों ने जयदेव के अवतरणों की अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। इससे प्रतीत होता है कि जयदेव की कृति का सम्मान एवं उपयोग सभी जैन, जैनेतर काव्यशास्त्रियों ने निःसंकोच किया । कविकृति की प्रामाणिकता एवं लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा ?
मुकुल भट्ट के पुत्र हट ने इस कृति पर जयदेवछन्दोवृत्ति नाम से टीका लिखी इस वृत्ति के ३०० वर्षों के पश्चात् शीलभद्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरी ने १३वीं शती में जयदेवछन्दशास्त्रवृत्ति टिप्पन के नाम से टिप्पणियां कीं, जो संभवतः पेट की वृत्ति पर ही है।
स्वयंभूच्छन्दस् - हरिवंश पुराण (जैन), पउमचरिउ तथा इस कृति के रचयिता स्वयंभू एक ही थे या भिन्न-भिन्न इस विषय पर मतैक्य नहीं है। पउमचरिय में विद्यमान इस कृति के अवतरणों को एक ही कवि की कृति मानने से कवि की एकता मानें तो स्वयंभू माउरदेव ब्राह्मण के पुत्र एवं त्रिभुवन के पिता हैं ।
आठ अध्यायों में विभक्त इस कृति के प्रथम अध्याय के कुछ पत्र अप्राप्य हैं । द्वितीय अध्याय में अर्धसम तथा तृतीय अध्याय में विषम छन्दों का वर्णन है। चतुर्थ से अष्टम तक अपभ्रंश के छन्दों की चर्चा है । कवि ने संस्कृत छन्दों को भी प्राकृत में प्रयुक्त कर उनके उदाहरण प्राकृत रचनाओं से दिये हैं।
वृत्तजातिसमुच्चय प्राकृत पद्यों में रची हुई इस रचना के नामान्तर कवि सिद्ध भी है । इसके रचयिता विरहांक या विरहलांछन है । सिद्धहेमव्याकरण में इसमें प्रयुक्त दो किया गया है जो इसकी प्रामाणिकता की कसौटी है।
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सिद्ध एवं छन्दोविचित प्राकृत पद्यों को उद्धृत
यह ग्रन्थ छः नियमों में विभक्त है । पाँचवें नियम को छोड़कर शेष पाँच नियमों में प्राकृत छन्दों का ही विश्लेषण है । पाँचवें नियम में संस्कृत छन्द हैं। छठे नियम में एक कोष्ठक में दूरियों का मान दिया हैं, जो इस प्रकार है
४ अंगुल = १ राम, ३ राम = १ वितस्ति, २ वितस्ति = १ हाथ, २ हाथ = १ धनुर्धर, २००० धनुर्धर = १ कोश, ८ कोश = १ योजन |
इस ग्रन्थ पर वृत्ति नाम से चक्रपाल के पुत्र गोपाल ने टीका लिखी है, जिसमें कात्यायन, भरत, कम्बल और अश्वतर का स्मरण है ।
छन्दः कोश - रत्नशेखरसूरि द्वारा रचित इस रचना में कुल ७४ पद्य हैं। प्राकृत भाषा में निबद्ध इस कृति में ५ से ५० तक के पद्य अपभ्रंश भाषा में लिखे गये हैं । प्राकृत छन्दों के लक्षण विस्तार से दिये हैं । इस कृति पर चन्द्रकीतिरि ने वृति एवं अमरकीतिसूरि ने वातावबोध नामक टीका की इस ग्रन्थ को आधार बनाकर छन्दकदली एवं छन्दस्तत्व की भी रचना हुई ।
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