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________________ जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी काव्य में प्रतीक-योजना ४३५ मधाबाप कविवर कुमुदचन्द्र ने बनजारा गीत नामक प्रतीक काव्य की रचना की है। इस काव्य में बनजारा मनुष्य है जिस प्रकार बनजारा इधर-उधर विचरण करता है उसी प्रकार यह मनुष्य भी भव-भ्रमण करता है। भट्टारक रत्नकीति ने नेमिनाथ बारहमासा में विरह शब्द प्रतीक रूप में व्यवहृत किया है इसका प्रतीकार्थ है काम । कविवर मनराम द्वारा होरा शब्द प्रतीक रूप में व्यवहृत किया गया है जिसका अर्थ है अनमोल मानव जीवन । अठारहवीं शती के सशक्त हस्ताक्षर भैय्या भगवतीदास द्वारा बिन्दक की चौपाई नामक ग्रन्थ में अजगर शब्द का व्यवहार प्रतीक रूप से हुआ है जिसका अर्थ है काल विकराल । शतअष्टोत्तरी नामक काव्य में कवि ने अनेक प्रतीकों का एक ही प्रसङ्ग में सपक्ष प्रयोग किया है । सुआ, आत्मा का प्रतीक है, सेवर, संसार के कमनीय विषयों का प्रतीक है, आम, आत्मिक सुखों का प्रतीक है और तूल, सांसारिक विषयों को सारविहीनता का प्रतीक है । अन्त में काव्य में कवि द्वारा आत्मा को सांसारिक रीत्यानुसार चलने के लिए सावधान रहने की संस्तुति की है। इस प्रयोग में कवि की लौकिक और आध्यात्मिक अभिज्ञता सहज ही में प्रमाणित हो जाती है । अजयराज पाटनी द्वारा रचित चरखाचौपाई नामक काव्य में चरखा प्रतीक रूप में प्रयुक्त है। यहाँ चरखा मानव-जीवन का प्रतीक है। कविवर द्यानतराय और वृन्दावनदास द्वारा अनेक काव्यों में प्रतीकात्मक प्रयोग हुए है। इनकी कविता में तम शब्द अज्ञान और मोह के लिए प्रयुक्त है। कुछ प्रतीक प्रयोग सार्वभौम है। इस दृष्टि से सिन्धु शब्द संसार अर्थ में प्रयुक्त है। उन्नीसवीं शती में कल्पवृक्ष का प्रतीक प्रयोग उल्लेखनीय हैं। कविवर महाचन्द्र ने अपने एक पद में कल्पवृक्ष का व्यवहार धार्मिक अभिव्यक्ति से किया है। कल्पवृक्ष सार्वभौम प्रतोक है, जिसके अर्थ है सभी प्रकार के मनोरथों का पूर्णरूप । भागचन्द्रजी इस काल के मनीषी है, आपने गंगानदी रूपक में अनेक प्रतीक प्रयोग स्वीकार किए हैं। यहाँ पानी ज्ञान का प्रतीक है, पंक संशय का प्रतोक है, तरंग सप्तभंग न्याय का प्रतीक है और मराल सन्तजनों का प्रतीक है। कवि का कहना है कि ऐसी गंगाधारा में स्नान करना कितना हितकारी है जिससे प्राणी पूर्णतः विशुद्ध हो जाता है। इस शती का सशक्त काव्यरूप है पूजा जिसमें कवियों ने अनेकविध प्रतीकात्मक प्रयोग किए हैं। इस दृष्टि .. से कवि वृन्दावनदास का उल्लेखनीय स्थान है । श्रीपद्मप्रभु की पूजा से तिमिर शब्द मोह अर्थ में प्रयुक्त है। इसी प्रकार कविवर बुधजन ने नींद शब्द का प्रयोग प्रतीक रूप में किया है जिसका अर्थ है मोह । इसी प्रकार शान्तिनाथ पूजा में शिवनगरी का प्रयोग प्रतीक रूप में हुआ है जिसका अर्थ है मोक्ष अर्थात् आवागमन से विमुक्त । कविवर क्षत्रपति जी ने सिन्धु शब्द का प्रतीक रूप में प्रयोग किया है जिसका अर्थ है, दुःख । यह प्रयोग विरत ही है । कविवर मंगतराय ने सिंह शब्द प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया है जिसका अर्थ है, विकराल काल । ऊपर किए गए शताब्दि-क्रम में विवेचन से हिन्दी जैन कवियों द्वारा व्यवहत प्रतीक योजना का परिचय सहज में ही हो जाता है। पन्द्रहवीं शती के काव्य में प्रतीकात्मक शब्दावली का यत्र-तत्र व्यवहार हुआ है, जिनके प्रयोग से काव्याभिव्यक्ति में उत्कर्ष के परिदर्शन होते हैं। सोलहवीं शती में प्रतीक-प्रयोग में विकास के दर्शन होते हैं। इस समय के रचित काव्य में प्रतीक शब्दावलि के साथ-साथ प्रतीकात्मक रचनाएँ भी रची गयी हैं जिनमें जैन दर्शन अभिव्यक्त हुआ है। सत्रहवीं शतो में जैन कवियों द्वारा सार्वभौम प्रतीकों का व्यवहार हुआ है, साथ ही नवीन प्रतीकात्मक शब्दावलि भी अपनी प्रयोगात्मक स्थिति में सम्पन्न है, यथा-मानस्तम्भ गिरिनार, नवकार, समयसार तथा बनजारा। एक ही कविता में प्रतीकों के प्रयोग दर्शनीय हैं इस काल के कवियों की कलात्मकता-क्षमता का परिचायक है। सत्रहवीं शती की भांति अठारहवीं शती में भी प्रतीक-विषयक बातों का परिपालन हुआ है। पूरा का पूरा काव्य प्रतीक रूप में रचने का रिवाज यहाँ भी रहा है। इस दृष्टि से चरखा चौपाई उल्लेखनीय हैं। उन्नीसवीं शती में विरचित हिन्दी काव्य में जैन कवियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210625
Book TitleJain Kaviyo dwara Rachit Hindi Kavya me Pratik Yojana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar Prachandiya
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size645 KB
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