Book Title: Jain Kaviyo dwara Rachit Hindi Kavya me Pratik Yojana
Author(s): Mahendrasagar Prachandiya
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी काव्य में प्रतीक-योजना विद्यावारिधि डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया डी० लिट्०, अलीगढ़ हिन्दी का आदिम स्रोत अपभ्रंश की कोड में निहित है। काव्याभिव्यक्ति के अन्तर-बाह्य तत्त्वों का अवतरण अपभ्रंश से हिन्दी में हुआ है। काव्य में प्रतीकों की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जैन कवियों द्वारा रचित हिन्दी काव्य में प्रतीक-योजना विषयक संक्षेप में चर्चा करना हमें यहाँ मूलतः ईप्सित रहा है। वैय्याकरणों ने प्रतीक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए स्पष्ट किया है-प्रत्येति प्रतीयते वा इति प्रतीकः प्रति इण् । अलीकादिव्यश्च इति औनादिक् सूत्रात् साधुः, आशय यह है कि यह शब्द प्रतिउपसर्गपूर्वक इण् (गतौ) धातु से उणादि निष्पन्न शब्द है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कुछेक मनीषियों ने प्रतिपूर्वक इक् धातु से निष्पन्न मानी है और अर्थ किया है-आत्मा की ओर प्रवर्तन । जिस मूर्त वस्तु को किसी अमूर्त वस्तु के अभिज्ञान के निमित्त उपस्थित किया जाता है, उसे वस्तुतः प्रतीक कहते हैं। वर्य-विषय के भाव अथवा गुण की समता रखने वाले वाह चिह्नों की प्रतीक कहते हैं । प्रतीक शब्द का प्रयोग उस दृश्य अथवा गोचर वस्तु के लिए किया जाता है जो किसी अदृश्य अथवा अप्रस्तुत विषय का प्रति-विधा। उसके साथ अपने साहचर्य के कारण करती है अथवा कहा जा सकता है कि किसी अन्य स्तर की समानुरूप वस्तु द्वारा किसी अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व कराने वाली वस्तु प्रतीक है। इस विवेचन से प्रतीक शब्द हमारे विवेच्य विषय में सहायक बनेगा। प्रकृति क्रोड से गृहीत इन प्रतीकों को इन्द्रियगम्य कहा जाता है। इनके द्वारा अमूर्त भावनाएं स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हआ करती है और उनका अर्थ-प्रभाव दूरगामी होता है। रससिद्ध कवियों द्वारा ऐसे अमृतं भावरूपों को प्रतीकों द्वारा मूर्तायित किया जाता है कि इन्द्रियों द्वारा उनका सजीव तथा स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण सहज-सुगम हो जाता है। इस प्रकार प्रतीकों के सप्तम प्रयोग से अमूर्त भावनाओं का तलस्पर्शी गम्भीर प्रभाव पाठक अथवा श्रोता पर सहज में पड़ा करता है। उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति तथा सारोपा और साध्यवसाना लक्षणा के द्वारा प्रतीकों का परिपोषण हुआ करता है। सारोपा लक्षणा उपमान तथा उपमेय एक समान अधिकरण वाली भूमिका में वर्तमान रखते हैं। साध्यवसाना में उपमेय का उपमान के अन्तर्भाव हो जाता है । सादृश्यमूलक सारोपा लक्षणा की भूमिका पर रूपक अलंकार द्वारा प्रतीक विधान आधृत होता है तथा सादृश्यमूलक साध्यवसाना की भूमिका पर अतिशयोक्ति अलंकार के माध्यम से प्रतीक स्थिर किए जाते हैं। इस प्रकार इन प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त भाव-सम्पदा की गम्भीरता और उत्कृष्टता का सन्धान सम्पन्न होता है । मूर्त और अमूर्त भावनाओं की अभिव्यक्ति विभूति को विकसित करने का मुख्यतः श्रेय व्यवहृत प्रतीकों पर निर्भर करता है। प्रतीक योजना की सपक्षता प्रतीकों के स्वाभाविक अर्थ-बोध पर आधारित है। ऐसा न होने पर व्यवहृत प्रतीक हमारे हृदय के आन्तरिक रागों एवं भावों को प्रभावित करने में असमर्थ रहते हैं। इस प्रकार भावाभिव्यंजना के लिए अप्रस्तुत का प्रयोग रस-बोध और भाव-प्रबोध में जब पूर्णतः सफलता प्राप्त करता है । वस्तुतः प्रतीक प्रयोग तभी समर्थ कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7