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जौन कला : विकास और परम्परा
- डॉ शिवकुमार नामदेव
प्राध्यापक, प्राचीन भारतीय इतिहास शासकीय गृह विज्ञान महाविद्यालय, होशंगाबाद ४६१००२ (म०प्र०)
जैन धर्म का क्रान्तिदर्शी विकास छठवीं शती ई० पू० से हुआ, जब इस धर्म के २४वें एवं अन्तिम तीर्थ कर भगवान महावीर स्वामी ने अपने नये विचारों एवं कार्यों से इसे नया जीवनदान दिया । जैन मतानुयायियों के अनुसार इस धर्म की प्राचीनता प्रागैतिहासिक है । उनके अनुसार मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी की मूर्ति इसके आदि प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव की है। यही नहीं वेदों में उल्लिखित कतिपय नामों को जैन तीर्थ करों के नामों से जोड़ा गया है । साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म विश्व का एक प्राचीन धर्म है । प्रस्तुत लेख में जैन धर्म की प्राचीनता एवं विकास का जैन मूर्तिकला, वास्तुकला एवं चित्रकला के माध्यम से निरूपण किया गया है।
भारत की प्राच्य संस्कृति के लिए जहाँ जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, वहीं जैन कला का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है । विभिन्न ललित कलाओं के क्षेत्र में जैन धर्म की देन रही है। ई०पू० दूसरी सदी से जैन धर्म के प्रसार में कला का व्यापक रूप से प्रचार किया गया ।
मूर्तिकला मूर्तिकला के क्षेत्र में जैन कला ने अर्हन्तों की अगणित कायोत्सर्ग तथा पद्मासन ध्यान-मग्न मूतियों का निर्माण किया है। इन मूर्तियों में कितनी ही तो चतुर्मुख एवं कितनी ही सर्वतोभद्र हैं।
भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ सिन्धु सभ्यता के उत्खनन से उपलब्ध हुई हैं। इस सभ्यता में प्राप्त मोहनजोदड़ो के पशपति को यदि शैव धर्म का देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न धड़ को दिगम्बर मत की खण्डित मुर्ति मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
सिन्धु सभ्यता के पशुओं में एक विशाल स्कंधयुक्त वृषभ तथा एक जटाजूटधारी का अंकन है । वृषभ तथा जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थ कर आदिनाथ का अनुमान कर सकते हैं । हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा क्रमांक ३००, ३१७ एवं ३१८ में अंकित प्रतिमा आजानुलम्बित बाहुद्वय सहित कायोत्सर्ग मुद्रा में है। हड़प्पा के अतिरिक्त उपर्युक्त साक्ष्य हमें मोहनजोदड़ो में भी उपलब्ध होता है।
१ स्टडीज इन जैन आर्ट-यू०पी० शाह, चित्र फलक क्रमांक १. २ सरवाइवल आफ दि हड़प्पा कल्चर-टी० जी० अर्भू थन, पृ० ५५. ३ एम० एस० वत्स, हड़प्पा, ग्रन्थ १, पृ० १२६-३०, फलक ६३. ४ वही, पृ० २६, मार्शल-मोहनजोदड़ो एण्ड इट्स सिविलाइजेशन, ग्रन्थ १, फलक १२, आकृति १३, १४, १८,
१६, २२.
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