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________________ 116 जैन कला में तीर्थंकरों का वीतरागी स्वरूप : डा० मारुति नन्दन तिवारी, डा० चन्द्रदेवसिंह ऋषभनाथ के यक्ष-पक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी रपष्टतः शिव और विष्णु की शक्ति वैष्णवी के प्रभाव से युक्त हैं / श्रेयांसनाथ के यक्ष-यक्षी ईश्वर और गौरी हैं। इनके अतिरिक्त गरुड़, वरुण, कुमार, गौरी, काली, महाकाली, नामों वाले यक्ष-यक्षी के साथ ही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, कार्तिकेय जैसे ब्राह्मण देवों का भी स्पष्ट प्रभाव यक्ष-यक्षी के निरूपण में उनके नामों एवं लक्षणों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। समन्वयवादी और समय के अनुरूप परिवर्तन को स्वीकार करने की उपर्युक्त प्रवृत्ति के साथ ही जैनधर्म में कुछ निजी विशेषताएँ भी रही हैं / एक ओर जैनधर्म में सभी प्रकार के परिवर्तनों को स्वीकार किया गया, किन्तु दूसरी ओर मुख्य आराध्य देव तीर्थंकरों के मूल स्वरूप के साथ किसी भी प्रकार के शिथिलन को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। तीर्थकर वीतरागी होते हैं जिनकी उपासना से भौतिक समृद्धि की प्राप्ति सम्भव नहीं थी। सामान्य जनों को जैन धर्म में बनाये रखने के लिए तथा भौतिक सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिए तीर्थंकरों के साथ शासन देवी-देवताओं के रूप में यक्ष-यक्षी को संश्लिष्ट किया गया जिनसे सभी प्रकार की भौतिक जगत की इच्छित वस्तुएं प्राप्त की जा सकती थीं। किन्तु तीर्थंकरों के वीतरागी और सांसारिक कर्मों के मुक्तिदायी स्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया / दूसरी ओर जब हम बौद्ध धर्म की ओर दृष्टि डालते हैं तो बुद्ध का भी प्रारम्भ में मौलिक स्वरूप तीर्थंकरों के समान ही वीतरागी रहा है, जिन्हें कालान्तर में विभिन्न भौतिक उपलब्धियों को देने वाले देवता के रूप में परिवर्तित किया गया। यह बात अभय और वरद मुद्राओं में बुद्ध को दिखाये जाने से पूरी तरह स्पष्ट है, जिसका अभिप्रेत बुद्ध से अभयदान और वरदान प्राप्त करना था। यही नहीं, बुद्ध ने समय-समय पर अन्य आचार्यों एवं देवताओं की भाँति विभिन्न प्रकार के चमत्कारों द्वारा भी अपनी अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन किया था। केवल जैन धर्म में ही सारे परिवर्तनों की स्वीकृति के बाद भी तीर्थंकरों के मूल वीतरागी स्वरूप को कभी भी नहीं छेड़ा गया / यही कारण है कि तीर्थंकरों को न तो कभी अभयदान और न ही वरदान की मुद्रा में दिखाया गया। साथ ही कमठ (शम्बर) द्वारा पार्श्वनाथ की तपस्या के समय उपस्थित किये गये विभिन्न उपसर्गों (विनों) और महावीर की तपस्या में शूलपाणि यक्ष और संगमदेव द्वारा उपस्थित उपसर्गों के समय भी इन तीर्थंकरों द्वारा किसी प्रकार का कोई चमत्कार नहीं किया गया। पार्श्वनाथ और महावीर दोनों ही शान्त भाव से यातनाओं को सहते हुये ध्यानरत रहे / पार्श्वनाथ के उपसर्गों के समय स्वयं नागराज धरणेन्द्र को उपस्थित होकर उनकी रक्षा करनी पड़ी थी। इसका कदापि यह अर्थ नहीं है कि ये तीर्थकर अलौकिक शक्तियों या चमत्कारों से रहित थे, बल्कि अपने वीतरागी स्वभाव के कारण ही ये उनसे विरत रहकर शान्त बने रहे / २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के संसार त्याग कर दीक्षा लेने का प्रसंग भी जैन धर्म की इसी मूलभूत प्रवृत्ति को उजागर करता है। अपने विवाह के अवसर पर दिये जाने वाले भोज के लिए रखे गये पशुओं को देखकर उनके मन में विरक्ति का भाव उत्पन्न हुआ और उन्होंने बिना विवाह किये ही वापस लौटकर दीक्षा ग्रहण की। यह बात अहिंसा के प्रति जैन धर्म की अटूट निष्ठा को व्यक्त करती है / ऋषभनाथ के पुत्रों-भरत चक्रवर्ती और बाहुबली के युद्ध के समय सैन्य युद्ध के स्थान पर अनावश्यक नरसंहार को रोकने के लिए उनके द्वन्द्व युद्ध का निर्णय भी अहिंसा की मानसिकता का चरम बिन्दु दरशाता है / बाहुबली तीर्थंकर न होते हुए भी विजय के क्षणों में संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण करते हैं, और अत्यधिक कठिन साधना और तपश्चर्या द्वारा कैवल्य प्राप्त करते हैं / तपस्या के समय उनके शरीर से लता-वल्लरि के लिपटने के साथ ही वृश्चिक एवं सर्प For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.210621
Book TitleJain Kala me Tirthankaro ka Vitragi Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari, Chandradev Sinh
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Art
File Size2 MB
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