________________ खण्ड 4 : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन कुषाण काल में मथुरा में भागवत सम्प्रदाय के भक्ति आन्दोलन के प्रभाव के कारण पहली बार प्रचुर संख्या में तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ और तीर्थंकर मूर्तियों के कई लक्षण भी सर्वप्रथम स्थिर हुए / कुषाण काल में ऋषभनाथ, सम्भवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर (वर्धमान) की कई मूर्तियाँ बनीं। इन मूर्तियों में सर्वप्रथम वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह के अंकन की परम्परा प्रारम्भ हुई जिनके आधार पर सरलता से तीर्थंकर और बुद्ध मूर्तियों के बीच अन्तर किया जा सकता है / तीर्थंकर मूर्तियाँ केवल दो ही मुद्राओं-ध्यानस्थ या पद्मासन में बैठी और कायोत्सर्ग या खड्गासन में खड़ी रूप में बनीं (चित्र 2-3) / ये दोनों ही मुद्रायें योगी की चिन्तन-ध्यान की विशिष्ट मुद्रायें हैं / आगे की शताब्दियों में भी तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण इन्हीं दो मुद्राओं में हुआ। कूषाण काल में तीर्थकर मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों में से लगभग सात प्रातिहार्यों (सिंहासन, चामरधारी सेवक, प्रभामण्डल, अशोक वृक्ष, मालाधारी गन्धर्व आदि) का अंकन हुआ। तीर्थंकर मूर्तियों में सभी अष्ट-प्रातिहार्यों का अंकन गुप्तकाल में प्रारम्भ हुआ / गुप्तकाल में ही तीर्थंकर मूर्तियों के साथ शासन देवता या उपासक देवों के रूप में यक्ष-यक्षी को संश्लिष्ट किया गया और तीर्थंकरों के स्वतन्त्र लांछन भी दिखाये गये। मथुरा, अकोटा (ऋषभनाथ को कुबेर यक्ष और अम्बिका यक्षी के साथ) राजगिर, वाराणसी (चित्र 1) विदिशा (दुर्जनपुर, म० प्र०), बादामी एवं अयहोल (कर्नाटक)4 से छठी-सातवीं शती ई० की अनेक तीर्थकर मूर्तियाँ मिली हैं / ___ आठवीं से तेरहवीं शती ई० के मध्य की अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्थलोंदेवगढ़, खुजराहो (चित्र 2), शहडोल, मथुरा, राजगिर, खण्ड गिरि, कुंभारिया, ओसियां, आबू, तारंगा, घणेराव, जालोर, हुम्चा, असिकेरी, हलेविड, तिस्मत्तिकुणरम एवं एलोरा आदि से प्राप्त हुई हैं। जिनमें प्रतिमालक्षण की दृष्टि से तीर्थंकर मूर्तियों का पूर्ण विकसित स्वरूप मिलता है / यक्ष-यक्षी, अष्टप्रातिहार्यों एवं स्वतन्त्र लांछनों से युक्त मध्यकालीन तीर्थंकर मूर्तियों में नवग्रह, सरस्वती, लक्ष्मी तथा कुछ अन्य देवी-देवताओं का अंकन भी मिलता है। __जैन धर्म प्रारम्भ से ही अत्यन्त उदार और समन्वयवादी रहा है जो न केवल राम और कृष्ण जैसे लोक चरित्रों के जैन देवकुल में समाविष्ट किये जाने से स्पष्ट है वरन् इससे सम्बन्धित स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना से भी स्पष्ट है जिनमें रामचरित्र से सम्बन्धित पउमचरिय (विमलसूरि कृत, 473 ई०) एवं कृष्ण चरित्र से सम्बन्धित हरिवंश पुराण (जिनसेनकृत-७८३ ई०) मुख्य हैं / समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण ही जैन धर्माचार्यों ने 63 शलाका पुरुषों की सूची में 24 तीर्थंकरों के अतिरिक्त बलराम, कृष्ण, राम, भरत चक्रवर्ती, लक्ष्मण, बलि, निशम्भु, मधुकैटभ, प्रहलाद, रावण और जरासन्ध को भी चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के रूप में सम्मिलित किया / तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी अधिकांशतः ब्राह्मण देवी-देवताओं से सम्बन्धित हैं जिनके माध्यम से जैनों ने ब्राह्मण देवों पर तीर्थंकरों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। किन्तु यह श्रेष्ठता बौद्ध धर्म के ब्राह्मण देवों के प्रति अपमानजनक स्वरूप से सर्वथा भिन्न रही है / ज्ञातव्य है कि बौद्धों द्वारा ब्राह्मण देवी-देवताओं में से अनेकशः ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश और शक्ति को अपने पैरों के नीचे अपमानजनक स्थिति में दिखाया गया है। समय के साथ चलने और अपने धर्म को लोकप्रिय बनाये रखने की प्रवृत्ति के कारण समन्वयवादी धारणा की पराक.ष्ठा जिनसेन कृत हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पूरी तरह स्पष्ट है जिसमें जिनमन्दिर में कामदेव और रति की मूर्तियों के निर्माण की संस्तुति की गई है। हरिवंशपुराण में जिनमन्दिरों में सम्पूर्ण प्रजा के कौतुक के लिए कामदेव और रति की मूर्तियाँ बनबाने और मन्दिर कामदेव के नाम से प्रसिद्ध होने के उल्लेख हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org