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जैन कला में तीर्थङ्करों का वीतरागी स्वरूप
-डा. मारुतिनन्दन तिवारी,
-डा. चन्द्रदेव सिंह [कला इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-२२१००५ (उ० प्र०)]
जैन कला और स्थापत्य पर डा० यू० पी० शाह प्रभृति विद्वानों ने कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ एवं लेख प्रकाशित किये हैं, जिनमें जैन कला के विविध पक्षों को सुन्दर विवेचना और वर्णन मिलते हैं। किन्तु जैन कला में जैन तीर्थंकरों या जिनों के विषय में अध्ययन मुख्यतः लक्षणपरक रहे हैं। प्रस्तुत लेख में हम जैन तीर्थंकरों के वीतरागी स्वरूप तथा कला में उसकी अभिव्यक्ति की चर्चा करेंगे।
जैन देवकूल में वर्तमान अवसर्पिणी युग के २४ तीर्थंकरों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, जिन्हें हेमचन्द्र (१२वीं शती ई०) ने 'देवाधिदेव' भी कहा है। तीर्थंकरों के मुख्य आराध्य देव होने के कारण सर्वप्रथम कला में तीर्थंकरों की ही मूर्तियाँ बनीं। कुछ विद्वान हड़प्पा से प्राप्त नग्न कबन्ध (लगभग २५०० ई० पू०) को तीर्थक र मानते हैं, जिनमें टी० एन० रामचन्द्रन एवं रामप्रसाद चन्द्रा मुख्य हैं। सिन्धु सभ्यता की लिपि के अन्तिम रूप से अभी तक न पढ़े जा सकने की स्थिति में यद्यपि हड़प्पा की मूर्ति का तीर्थंकर मूर्ति होना संदेहास्पद हो सकता है किन्तु मूर्ति की नग्नता और उसके खड़े होने की कायोत्सर्गजैसी मुद्रा किसी न किसी रूप में ऐसे योगी मूर्तियों के निर्माण और पूजन की परम्परा को अवश्य प्रमाणित करती है जो कालान्तर में केवल तीर्थंकर मूर्तियों की ही अभिन्न विशेषताएँ रही हैं। पटना के समीप लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन चमकदार आलेप से युक्त मूर्ति निःसन्देह तीसरी शताब्दी ई० पू० में तीर्थंकर मूर्तियों के निर्माण और पूजन की स्पष्ट साक्षी हैं । शुंग काल में मथुरा और चौसा (भोजपुर, बिहार) जैसे स्थलों पर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनीं । बौद्ध परम्परा के समान जैनपरम्परा में महावीर या किसी पूर्ववर्ती तीर्थंकर ने अपनी मूर्ति निर्माण का निषेध नहीं किया था। इससे बुद्ध के पूर्व ही तीर्थंकर मूर्तियों के निर्माण का मार्ग जैन धर्मानुयायियों के लिए प्रशस्त था। वसुदेवहिण्डी (छठी शती ई०) तथा अन्य कई प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों सहित हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र (१२वीं शती ई०) में हमें महावीर के जीवन काल में हो जीवन्तस्वामी स्वरूप में उनकी प्रतिमा के निर्माण और पूजन के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं । जीवन्तस्वामी मूर्तियों के प्राचीनतम उदाहरण भी गुजरात में अकोटा से प्राप्त हए हैं । इन गुप्तकालीन मूर्तियों के पीठिका लेख में स्पष्टतः 'जीवितस्वामी' नाम मिलता है।
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