________________ रूप में बनाई जाती थीं। वस्त्र और अलंकारों की यहां उपेक्षा थी अत: कलाकार को प्रधान देवों के प्रदर्शन में अपने शिल्प चमत्कार का अवसर नहीं मिलता था। इस अभाव की पूर्ति वास्तु अलंकरण तथा अवान्तर देवों की सज्जा विधा से की। उन्हीं शैलीगत भेद से काल निर्धारण में सहायता मिलती है। प्रस्तर मूर्तियों के अतिरिक्त जैन मत की धातु मूर्तियां भी बड़ी संख्या में मिली हैं जो कला सौष्ठव के साथ पुरातात्विक महत्व की भी हैं। गुजरात में अकोटा और बिहार में चौसा नामक स्थल से मिली मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इनका समय गुप्त काल चौथी से छटी शती ई० का है यद्यपि कुछ विद्वान् इन्हें पूर्ववर्ती भी मानते हैं। अकोटा के धातु शिल्पी को तीर्थंकर की मूर्ति को वस्त्राभूषण से सज्जित करने की युक्ति सूझी। फलत: उसे जीवन्त स्वामी के रूप में प्रस्तुत किया। वर्धमान महावीर यहां राजकुमार के रूप में प्रदर्शित किए गए। __ जैन कला के पुरासाक्ष्य भारत में तो यत्र तत्र प्रचुर मात्रा में हैं ही विश्व के अनेक संग्रहालयों व कलावीथियों की भी शोभा वृद्धि कर रहे हैं। इन सभी का सचित्र अभिलेखीकरण यथा शीघ्र अपेक्षित है ताकि विद्वानों व शोधकर्ताओं को अपने अध्ययन व अनुशीलन के लिए उपलब्ध रहे साथ ही भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में जैन कला का समुचित मूल्यांकन हो सके। -निदेशक - भारत कला भवन, वाराणसी हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 104 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org