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जैन कर्म-सिद्धान्त : तुलनात्मक विवेचन
डा. राममूर्ति त्रिपाठी
हिन्दू संस्कृति का प्रत्यभिज्ञापक प्रतिमान है- पुनर्जन्मवाद में आस्था । पुनर्जन्म का मूल है-कर्मवाद । हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत परिगणित होने वाली तीनों धारायें-ब्राह्मण (शैव, शाक्त तथा वैष्णवादि), जन और बौद्ध कर्मवाद में आस्था रखती है । ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म के अन्तर्गत परिगणित होने वाला मीमांसा दर्शन तो (कर्म) ही को सब कुछ मानता है-'कर्मात् मीमांसकाः' । बौद्ध सृष्टि गत समस्त वैचित्रय का मूल कर्म को स्वीकार करते हैं और जैन कर्म तथा जीवात्मा का अनादि संबंध स्वीकार करते हैं। तीनों ही धाराओं में सृष्टि का मूल “कर्म" मानने वाले उपलब्ध हैं-मानवेतर किसी सर्वोपरि सत्ता (ईश्वर) को अस्वीकार करते हैं। तीनों अनादि वासना, कषाय और तण्हा को कर्म-बंध का मूल मानते हैं। तीनों ही इनका समुच्छेद स्वीकार करते हैं। इन तमाम समानताओं के बावजूद (कर्म) के स्वरूप के संबंध में जैन दर्शन की धारणा सर्वथा भिन्न है।
जनेतर दर्शनों में वैशेषिक दर्शन (कर्म) को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानता है। उनकी दृष्टि में कर्म वह है जो द्रव्य समवेत हो, जिसमें स्वयम् कोई गुण न हों, और जो संयोग तथा विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न रखता हो । गुण की तरह यहां कर्म - भी द्रव्याश्रित धर्म विशेष है। गण द्रव्यगत सिद्ध धर्म का नाम है, जबकि क्रिया (साध्य) है। कर्म मूर्त द्रव्यों में ही रहता है और मूर्त द्रव्य वे होते हैं जो अल्प परिमाण वाले होते हैं। वैशेषिकों के यहां आकाश, काल, दिक् तथा आत्मा विभु या व्यापक हैं--अतः इनमें कर्म नहीं होता। पृथिवी, जल, वायु, तेज तथा मन इन्हीं मूर्त पांच द्रव्यों में कर्म की वृत्ति रहती है। यह कर्म पांच प्रकार का है- उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन । अन्य सर्व विध क्रियाओं का अन्तर्भाव (गमन) में ही हो जाता है, यहां कभी-कभी क्रिया और कर्म पर्याय रूप में भी समझे जाते हैं, कभी-कभी क्रिया के द्वारा प्राप्य कर्म कहा
जाता है । पाणिनि ने कर्म, जो कर्ता की क्रिया से ईप्सिततम रूप में प्राप्त होता है-उसे कहा है। विवेकशील मानव के सन्दर्भ में मीमांसा दर्शन ने कर्म के नित्य, नैमित्तिक, काम्य निषेध्य रूपों पर पर्याप्त विचार किया है। मानव के ही सन्दर्भ में प्रारब्ध संचित और क्रियमाण कर्मचक्र का विचार उपलब्ध होता है। गीता में कर्म शब्द का विशिष्ट और सामान्य, सन्दर्भसापेक्ष तथा सन्दर्भ-निरपेक्ष अनेक रूपों में प्रयोग मिलता है । शांकर अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से गीताकार के "भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्मसंज्ञितः" व्याख्या करते हुए लोकमान्य ने जो कुछ कहा है-उसका आशय यह है कि निःस्पंदब्रह्म में मायोपाधिक आद्यस्पंद या हलचल ही कर्म है। इस प्रकार सारी सृष्टि ही गत्यात्मक होने से क्रियात्मक या कर्मात्मक है । स्थिति तो केवल ब्रह्म है । स्थिति के वक्ष पर ही 'गति" है-हलचल है, बननाबिगड़ना है, संसार है। वैशेषिक दर्शन का कर्म भी यही हैवैसे उसे माया अथवा मायोधिक स्पंद का पता नहीं है। जैन दर्शन भी जब काव्यवाङमनः 'कर्म' को 'योग' कहता है, तब वह काया वाक् तथा मनः प्रदेश में होने वाले आत्म परिस्पंद को ही क्रिया या योग कहता है। यहां योग, क्रिया तथा कर्म को सामान्यतः पर्याय रूप में ही लिया गया है-वैसे अन्यत्र "कर्म" का स्वरूप सर्वथा भिन्न रूप में कहा गया है।
जैन दर्शन में 'कर्म" के स्वरूप पर विचार करते हुए यह माना गया है कि कर्म और जीवात्मा का अनादि संबंध है। कर्म के ही कारण जीव एक साथ होता है । कर्मों के ही कारण जीव में कषाय आता है और कषाय के ही कारण कर्म के योग्य पुद्गलों का आत्मा में उपश्लेष होता है । इस प्रकार 'कर्म' पौद्गलिक मूर्त तथा द्रव्यात्मक है- भौतिक है-वह आयतन घेरता है। जैनाचार्यों की धारणा है कि जिस प्रकार पात्र विशेष में फल-फूल तथा पत्रादि का मदिरात्मक परिणाम विशेष होता है, उसी
बी. नि. सं. २५०३
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