________________ 216 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ साधना द्वारा पूर्वबद्ध अनियत विपाकी कर्मों को समय से पूर्व उनके 14. अगुत्तरनिकाय उद्धृत उपाध्याय भरतसिंह, बौद्धदर्शन और अन्य विपाक को प्रदेशोदय के माध्यम से निर्जरित करना। ___ भारतीय दर्शन, पृ. 463 / / यह सत्य है कि पूर्वबद्ध कर्मों के विपाकोदय की स्थिति में 15. देखें-आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. 250 क्रोधादि आवेग अपनी अभिव्यक्ति के हेतु चेतना के स्तर पर आते हैं, 16. देवेन्द्रसूरि, कर्मग्रन्थ प्रथम, कर्मविपाक, गाथा 1 किन्तु यदि आत्मा उस समय अपने को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर 17. पं. सुखलाल संघवी, दर्शन व चिन्तन, पृ. 225 साक्षीभाव में स्थिर रखे और उन उदय में आ रहे क्रोधादि भावों के प्रति 18. आचार्य नेमिचन्द, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड-६ मात्र द्रष्टा भाव रखे, तो वह भावी बन्धन से बचकर पूर्वबद्ध कर्मों की 19. आचार्य विद्यानन्दी, अष्टसहस्री, पृ. 51, उद्धृत--Tatia Dr.. निर्जरा कर देता है और इस प्रकार वह बन्धन से विमुक्ति की ओर Nathmal Tatia, Studies in Jaina Philosophy (P.Y. अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। वस्तुत: विवेक व अप्रमत्तता ऐसे तथ्य Rsearch Institute, Varanasi-5, p. 227 हैं जो हमें नवीन बन्धन से बचाकर विमुक्ति की ओर अभिमुख करते हैं। 20. कर्मग्रन्थ - प्रथम, कर्म विपाक- भूमिका पं. सुखलाल संघवी, व्यक्ति में जितनी अप्रमत्तता या आत्म चेतनता होगी, उसका विवेक पृ. 24 उतना जागृत रहेगा। वह बन्धन से विमुक्ति की दिशा में आगे बढ़ेगा। 21. सागरमल जैन- जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन पृ. जैन कर्म सिद्धान्त बताता है कि कर्मों के विपाक के सम्बन्ध में हम 17-18 विवशं या परतन्त्र होते हैं, किन्तु उस विपाक की दशा में भी हममें 22. (अ) महाभारत : शान्तिपर्व (गीता प्रेस, गोरखपुर) प्र. 129 इतनी स्वतन्त्रता अवश्य होती है कि हम नवीन कर्म परम्परा का संचय (ब) लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गीतारहस्य, पृ. 268 करें या न करें, ऐसा निश्चय कर सकते हैं। वस्तुतः कर्म विपाक के 23. आचार्य नरेन्द्र देव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. 277 सन्दर्भ में हम परतन्त्र होते हैं, किन्तु नवीन कर्म बन्ध के सन्दर्भ में हम 24. (अ) देखें--उत्तराध्ययनसूत्र--सम्पादक मधुकरमुनि 4/4/13, आंशिक रूप में स्वतन्त्र है। इसी आंशिक स्वतन्त्रता द्वारा हम मुक्ति 23/1/30 अर्थात् पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं। जो साधक विपाकोदय के (ब) भगवतीसूत्र 1/2/64 समय साक्षी भाव या ज्ञाता-द्रष्टा भाव में जीवन जीना जानता है, वह 25. देखें-- (अ) Nathmal Tatia, Tatia, Studies in Jaina निश्चय ही कर्म-विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है। Philosophy (P.V.R.I.), P. 254. (ब) सागरमल जैन- जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, सन्दर्भ-सूची पृ. 24-27 1. डॉ. सागरमल जैन- जैनकर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, 26. सागरमल जैन- जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, 1982, पृ.४ 35-36 श्वेताश्वतरोपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) 1/1-2 27. वही, पृ. 36-40 3. The Philosophical Quarterly, April 1932, P.72. 28. ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत विवरण तत्त्वार्थसूत्र 6 एवं 8, कर्म ग्रन्थ Maxmullar-Three Leacturers on Vedanta प्रथम कर्मविपाक, पृ. 54-61, समवायांग 30/1 तथा स्थानांग Philosophy, P. 165. 1/4/4/373 पर आधारित है। 5. पं. दलसुखभाई मालवणिया- आत्ममीमांसा (जैन संस्कृति संशोधन 29. योगशास्त्र (हेमचन्द्र), 4/107. मण्डल) 30. स्थानांग, टीका (अभयदेव), 1/11-12 6. रविन्द्रनाथ मिश्रा, जैन कर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास 31. जैनधर्म, मुनिसुशीलकुमार, पृ. 84 (पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५, 1985), पृ.८ 32. समयसारनाटक, बनारसीदास, उत्थानिका 28 वही, पृ. 9-10 33. भगवतीसूत्र, 7/10/121 रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, उत्तराध्ययनसूत्र 32/7 34. स्थानांगसूत्र स्थान, 9 9. (अ) समवायांग 5/4 (ब) इसिभासियाई 9/5 (स) तत्त्वार्थसूत्र 35. भगवद्गीता 18/17 8/1 36. धम्मपद, 249 10. कुन्दकुन्द, समयसार 171 37. सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, आद्रकसंवाद 2/6 11. (अ) अट्ठविहं कम्मगंथि--इसिभासियाई 31 38. सागरमल जैन, जैनकर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, (ब) अट्ठविहंकम्मरयमलं--इसिभासियाई 23 39. दशवौकलिकसूत्र, 4/9 12. उत्तराध्ययनसूत्र (सं. मधुकरमुनि), 33/2-3 40. सूत्रकृतांगसूत्र, 2/2/4 13. वही, 33/4-15 41. उत्तराध्ययनसूत्र, 28/14 7. पक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org