________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 214 प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म किस प्रकार के आचरण के कारण प्राणी का अप्रतिष्ठित कुल में जन्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्व होता है और किस प्रकार के आचरण से प्राणी का प्रतिष्ठित कुल में के निर्धारक तत्त्वों को नामकर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जन्म होता है, इस पर जैनाचार-दर्शन में विचार किया गया है। जिनकी संख्या 103 मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन अहंकारवृत्ति ही इसका प्रमुख कारण मानी गई है। सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप हैं- 1. उच्च-गोत्र एवं नीच-गोत्र के कर्म-बन्ध के कारण-निम्न आठ शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और 2. अशुभनामकर्म (बुरा व्यक्तित्व)। बातों का अहंकार न करने वाला व्यक्ति भविष्य में प्रतिष्ठित कुल में प्राणी जगत में, जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका जन्म लेता है- 1. जाति, 2. कुल, 3. बल (शरीरिक शक्ति), 4. , आधार नामकर्म है। रूप (सौन्दर्य), 5. तपस्या (साधना), 6. ज्ञान (श्रुत), 7. लाश (उपलब्धियाँ) और 8. स्वामित्व (अधिकार)। इनके विपरीत जो व्यक्ति शभनाम कर्म के बन्ध के कारण उपर्युक्त आठ प्रकार का अहंकार करता है, वह नीच कुल में जन्म लेता जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने है। कर्मग्रन्थ के अनुसार भी अहंकार रहित गुणग्राही दृष्टि वाला, गये हैं- 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. मन या अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्च-गोत्र को प्राप्त विचारों की सरलता, 4. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच-गोत्र को प्राप्त सामंजस्यपूर्ण जीवन। करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के शुभनामकर्म का विपाक बन्ध के हेतु हैं। इसके विपरीत पर-प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता ये विपाक 14 प्रकार का माना गया है- (1) अधिकारपूर्ण प्रभावक उच्च-गोत्र के बन्ध के हेतु हैं। वाणी (इष्ट-शब्द) (2) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप) (3) शरीर से गोत्र-कर्म का विपाक-विपाक (फल) दृष्टि से विचार करते हुए यह निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध) (4) जैवीय-रसों की ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अहंकार नहीं करता, वह प्रतिष्ठित समुचितता (इष्ट-रस) (5) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श) (6) कुल में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है- 1. अचपल योग्य गति (इष्ट-गति) (7) अंगों का समुचित स्थान पर होना निष्कलंक मातृ-पक्ष (जाति), 2. प्रतिष्ठित पितृ-पक्ष (कुल), 3. सबल (इष्ट-स्थिति) (8) लावण्य (9) यश:कीर्ति का प्रसार (इष्ट-यश:कीर्ति) शरीर, 4. सौन्दर्ययुक्त शरीर, 5. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, 6. (10) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ तीव्र बुद्धि एवं विपुलज्ञान राशि पर अधिकार, 7. लाभ एवं विविध और पराक्रम) (11) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर (12) कान्त उपलब्धियाँ और 8. अधिकार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति। लेकिन स्वर (13) प्रिय स्वर और (14) मनोज्ञ स्वर। अहंकारी व्यक्तित्व उपर्युक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं. अशुभ नाम कर्म के कारण- निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है। व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है-(१) शरीर की वक्रता, (2) वचन की वक्रता (3) मन की वक्रता और (4) 8. अन्तराय कर्म अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य पूर्ण जीवन। अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाले कारण को अशुभनाम कर्म का विपाक- 1. अप्रभावक वाणी (अनिष्ट-शब्द), अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पाँच प्रकार का है२. असुन्दर शरीर (अनिष्ट-स्पर्श), 3. शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त 1. दानान्तराय-दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके, होना (अनिष्ट-गंध), 4. जैवीयरसों की असमुचितता (अनिष्टरस), 5. 2. लाभान्तराय-कोई प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से अप्रिय स्पर्श, 6. अनिष्ट गति, 7. अंगों का समुचित स्थान पर न होना उसमें बाधा आ जाना, (अनिष्ट स्थिति), 8. सौन्दर्य का अभाव, 9. अपयश, 10. पुरुषार्थ 3. भोगान्तराय- भोग में बाधा उपस्थित होना जैसे व्यक्ति सम्पन्न हो, करने की शक्ति का अभाव, 11. हीन स्वर, 12. दीन स्वर, 13. भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो लेकिन अस्वस्थता के अप्रिय स्वर और 14. अकान्त स्वर। कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े, 4. उपभोगान्तराय- उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग 7. गोत्र कर्म करने में असमर्थता, जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित कुलों में 5. वीर्यान्तराय- शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग जन्म लेता है, वह गोत्र कर्म है। यह दो प्रकार का माना गया है- 1. नहीं किया जा सकना। (तत्त्वार्थसूत्र, 8.14) उच्च गोत्र (प्रतिष्ठित कल) और 2. नीच गोत्र (अप्रतिष्ठित कुल)। जैन नीति-दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org