________________ 866 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय उन्हें अपने (जैन) रूप में ढाल कर ही प्रस्तुत किया गया है. जैनकथाकार बहुत कुछ स्वतंत्र एवं उन्मुक्त होता है. बौद्धकथाकार की भांति उसपर कोई प्रतिबंध नहीं होता. प्रायः प्रत्येक बौद्धकथा किसी न किसी बोधिसत्त्व को केन्द्रबिन्दु मानकर चलती है. किन्तु कोई भी कथानक हो, कोई और कैसे भी पात्र हों अथवा कैसा भी घटनाक्रम या स्थितिचित्रण हो, जैन कथाकार मजे से अपनी कहानी एक रोचक एवं वस्तुपरक ढंग से कहता चलता है, केवल कहानी के अन्त में प्रसंगवश कुछ दार्शनिकता का प्रदर्शन, अथवा पुण्य के सुफल और पाप के कुफल की ओर संकेत कर दिया जाता है अथवा कोई नैतिक निष्कर्ष निकाल लिया जाता है या यह सूचित कर दिया जाता है कि प्रस्तुत कथा अमुक धार्मिक मान्यता या सिद्धान्त का एक दृष्टान्त है. अपनी इस उन्मुक्त स्वतन्त्रता के कारण जीवन की प्राय: प्रत्येक भौतिक, मानसिक, बौद्धिक या भावनात्मक परिस्थिति को जैनकथाकार अपनी कथा में आत्मसात कर लेता है और फलस्वरूप अनेक जैनकथाएं जनजीवन के प्रायः प्रत्येक अंग को स्पर्श कर लेती हैं. अतः आबालवृद्ध, स्त्रीपुरुष, जनसाधारण के स्वस्थ मनोरंजन का साधन बन जाती हैं और लोकप्रिय हो जाती हैं. मनोरंजन के मिस किसी तात्त्विक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक या नैतिक तथ्य की छाप श्रोता के मस्तिष्क पर डालने के अपने उद्देश्य में उसके बहुधा सफल हो जाने की संभावना रहती है. टाने, हर्टल, ब्हलर, ल्यूमेन तेस्सितोरि, जैकोबी आदि अनेक यूरोपीय प्राच्यविदों ने जैन कथासाहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण गवेषणाएँ की हैं. पूर्वमध्यकाल में ही अनेक जैनकथाएँ भारत के पश्चिमी तट से अरब पहुँचीं, वहाँ से ईरान और ईरान से यूरोप पहुँची. अनेक जैनकथाओं को तिब्बत, हिन्दएशिया, रूस, यूनान, सिसली और इटली के तथा यहूदियों के साहित्य में चीन्ह लिया गया एवं खोज निकाला गया है. जैनकथासाहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह साहित्य अखिल भारतीय संस्कृति से घनिष्कृतया सम्बन्धित है और इसी कारण विभिन्न कालों एवं प्रदेशों के जनजीवन का जैसा प्रतिबिम्ब इन जैन कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. पराणों, पौराणिक चरित्रों, खंडकाव्यों, महाकाव्यों, नाटकों आदि को न गिनें तो भी सैकड़ों स्वतन्त्र कथाएँ हैं और सैकड़ों ही छोटी-बड़ी कथाओं के संग्रह हैं. केवल विक्रमविषयक 60 कथाएँ मिलती हैं और केवल मैना-सुन्दरी एवं श्रीपाल के कथानक को लेकर 50 से अधिक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं. अनेक कथासंग्रहों में 100 से 200 तक कथाएँ संग्रहीत हैं, किसी किसी में 360 हैं जिससे कि वक्ता प्रतिदिन एक के हिसाब से पूरे वर्षभर श्रोताओं का नित्य नवीन कथा से मनोरंजन करता रहे. जैन कथा साहित्य के प्रधान मूलस्रोत पइन्नाओ को तथा शिवार्य की 'भगवती-आराधना' को माना जाता है. गुणाढ्य की प्रसिद्ध बृहत्कथा का आधार काणाभूति द्वारा भूतभाषा में रचित जिस ग्रन्थ को माना जाता है वह जैन विद्वान काणाभिक्षु का ही प्राकृत कथाग्रन्थ रहा प्रतीत होता है. श्वे० आगमसूत्र एवं दिग० पौराणिक साहित्य भी अनेक जैन कथाओं के उद्गम स्रोत रहे हैं. प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण जैनकथा ग्रन्थों में हरिषेण का बृहत्कथाकोष, प्रभाचन्द्र, श्रीचन्द्र, नेमिदत्त, आदि के आराधनाकथाकोष, जिनेश्वर सूरि एवं भद्रेश्वरसूरि की कथावलियाँ, रामचन्द्र का पुण्यास्रवकथाकोष इत्यादि उल्लेखनीय हैं. स्वतन्त्र कथाओं में तरंगवती कहा, समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, कुवलयमाला, उपमितिभवप्रपंचकथा, धर्मपरीक्षा, सम्यक्त्वकौमुदी, तिलकमंजरी, धर्मामृत, शुकसप्तति, रत्नचूड की कथा आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org