________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन अतः ईश्वर को न तो जगत् का सृष्टिकर्ता कहा जा सकता है और न कर्मफलप्रदाता। सृष्टि तो अणु-स्कन्धों के स्वाभाविक परिणमन से होती है। उसमें चेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण कभी निमित्त अवश्य बन जाते हैं, पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं हो सकता। अपनी कारण-सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। आचार्य अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र आदि जैन दार्शनिकों ने तथा नागार्जुन, आर्यदेव, शान्तिदेव, शान्तरक्षित आदि बौद्ध दार्शनिकों ने इस विषय को लगभग इन्हीं तर्कों को बड़ी गम्भीरता से प्रस्तुत किया है।' इस प्रकार जैन-बौद्ध तत्त्वमीमांसा के उपर्युक्त संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा लगता है कि श्रमण संस्कृति की ये दोनों शाखाएँ प्रारम्भ में सामान्यतः वस्तु-तत्त्व के विषय में लगभग एक दृष्टिकोण से विचार करती हैं, पर उत्तरकाल में उनमें गंभीर से गंभीरतर भेद होते गये। उनके भेद हुए हैं, उतने जैनदर्शन में नहीं दिखाई देते। इस भेद को हम विकास की संज्ञा दे सकते हैं। विकास की यह धारा अलग-अलग गति लिये हुए भी वह कहीं-न-कहीं मूल सूत्र से बंधी रही है। मूल संस्कृति दोनों को एक होने से दोनों का अन्तर बहुत अधिक नहीं हो पाया। इस अन्तर का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत आलेख में परिचय रूप में ही प्रस्तुत किया जा रहा है। -अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, न्यूएक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर-१ 1. विस्तार के लिए देखिये, लेखक की पुस्तकें-'बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० 112 से 118 और 'जैनदर्शन और संस्कृति का इतिहास', पृ० 153-156 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org