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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये।
इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन प्रयोग और विदेश यात्रा की अनुमति अपवाद मार्ग के रूप में मानी जा सकती है उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि भूतकाल में भी वह एक अपवाद-मार्ग ही था। इस प्रकार आचार-मार्ग में युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैनधर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में देश और काल
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के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये है। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियों दूर होंगी और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें।
जैन - इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत
समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता
भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। वस्तुतः कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैंविश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को खण्डों में विभाजित करके देखती है तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समझ रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुर्जो का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता।
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कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होती हैं, वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवर्ती अन्य परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के
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प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समझ किन्तु देशकाल - सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है।
ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण (Holistic- Approach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं के एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवनमूल्यों को प्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है।
भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है।
सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर [ ७४ ]GGG
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