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डा. रज्जनकुमार
संसारी जीव को भोजन या आहार की आवश्यकता पड़ती है। आहार जीवननिर्वाह के लिए आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक जीवधारी को भूख लगती है और उसे शांत करने के लिए आहार अनिवार्य है। मुख्य रूपसे आहार क्षुद्या शांति हेतु ग्रहण किया जाता है, परंतु अपरोक्ष रूप में यह जीव शरीर के पोषण के लिए अनिवार्य है। प्रायः यह देखा गया है कि किसीभी जीवधारी को अगर दीर्घ काल तक आहार नहीं दिया जाता है तो धीरे-धीरे उसका शरीर कमजोर होता जाता है और अंत में नष्ट हो जाता है। अर्थात् आहार शरीर टिकाए रखने के लिए आवश्यक है । शरीर रक्षा के साथ साथ आहार जीवधारियों को ऊर्जा प्रदान करता है जिसकी सहायता से सभी प्रकार के कार्यों का संचालन कुशलतापूर्वक होता है।
जैन आहार प्रक्रिया और आधुनिक विज्ञान
जीवधारियों का शरीर रेल के इंजिन, मोटर इंजिन के समान ही है। जिस प्रकार एक इंजिन को चलाने के लिए उसे ऊर्जा प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जो उसे कोयला जलाकर पानी को भाप में बदलकर अथवा डीजल, पेट्रोल या विद्युत आदि के रूप में दी जाती है, उसी प्रकार जन्तुओं के लिए भी उनके कार्य करने के लिए ऊर्जा प्रदान करना परमावश्यक है। किसी भी शारीरिक कार्य को करने में ऊर्जा का क्षय होता है। इस क्षय हुई ऊर्जा की पूर्ति के लिए शरीर के तत्त्व ईंधन का काम करते हैं। अत: शारीरिक कार्य करने में प्रत्येक जीवधारी के शरीर के तत्त्वों का क्षय बराबर होता रहता है। यदि जीव इन क्षय हुए तत्त्वों को पुनः शरीर को प्रदान कर उनकी कमी को पूरा न करता रहे तो धीरे-धीरे उसका शरीर दुर्बल होता जाएगा और अंत में बिलकुल नष्ट हो जाएगा। आहार इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । प्रतिदिन के उपयोग के लिए संचालन शक्ति प्रदान करने के अतिरिक्त जीवों के शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो की वृद्धि के लिए जिन-जिन तत्त्वों की आवश्यकता होती है उन सबकी पूर्ति आहार द्वारा ही होती है। आहार के इस महत्त्व का प्रतिपादन जैन ग्रंथों में हुआ है। जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं में आहार के लक्षण, विभेद कौनसे आहार लेने योग्य हैं, कौन से आहार अयोग्य हैं आदि कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने आहार लेने की प्रक्रियाओं का भी उल्लेख किया है। प्रस्तुत निबंध में जैनों की आहार प्रक्रियाओं का विवेचन आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में किया जा रहा है।
जैन ग्रंथों में तीन प्रकार की आहार प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है १. ओजाहार २. लोमाहार और ३. प्रक्षेपाहार । आहार प्रक्रिया से तत्पर्य जीवों द्वारा आहार ग्रहण करने की विधिसे है।
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१. ओजाहार
अपने उत्पत्ति स्थान में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है वह 'ओज' कहलाता है और इसे जब आहार रूप में ग्रहण किया जाता है तो वह ओजाहार कहलाता है। जन्म के पूर्व शिशु द्वारा माता के गर्भ में सर्वप्रथम जो आहार शरीर पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह ओजाहार है। सामान्य तथा ओजाहार जीव के शरीर द्वारा ग्रहण
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धोखेबाज, दगाबाज कभी भी विजय प्राप्त नहीं करते। वे तो सर्व विनाश को ही प्राप्त होते हैं।
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