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मिलता है ।
आगम - ग्रन्थ संक्षेप में और गूढ़ हैं। अतः, बाद के काल में उन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका नामक रचनाएँ निर्मित हुईं। इनकी रचना ई० १ ली शती से १६वीं शती तक होती रही है । इनका प्रयोजन आगमों के विषयों को संक्षेप या विस्तार से समझाना है। इन सब रचनाओं का सामूहिक नाम " आगम - साहित्य" है ।
आगम - साहित्य में प्रसंगवशात् आयुर्वेद विषयक अनेक संदर्भ आये हैं। यहाँ उनका दिग्दर्शन मात्र कराया
जायेगा ।
जैन आयुर्वेद साहित्य : एक समीक्षा | ४७१ कालक्रमानुसार जैन आगम साहित्य अर्धमागधी, शौरसेनी, प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत भाषाओं में
'स्वानांग में आयुर्वेद या चिकित्सा (गाडिय) को नौ पापथ तों में गिना गया है। 'निशीच चूणि' से ज्ञात होता है कि धन्वन्तरि इस शास्त्र के मूल प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने निरन्तर ज्ञान से रोगों का ज्ञानकर वैद्यक शास्त्र या आयुर्वेद की रचना की। जिन लोगों ने इस शास्त्र का अध्ययन किया वे 'महावैद्य' कहलाये । आयुर्वेद के आठ अंगों का भी उल्लेख इन आगम ग्रन्थों में मिलता है – कौमारभृत्य, शालाक्य, शल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल (विषनाशन), भूतविद्या, रसायन और वाजीकरण 5 चिकित्सा के मुख्य चार पाद हैं- वैद्य, रोगी, औषधि और प्रतिचर्या (परिचर्या) करने वाला (परिवारक) सामान्यतया विद्या और मंत्रों कल्पचिकित्सा और वनौषधियों (जड़ी-बूटीयों) से चिकित्सा की जाती थी और इसके आचार्य यत्र-तत्र मिल जाते थे । १० चिकित्सा की अनेक पद्धतियां प्रचलित थीं । इनमें पंचकर्म, वमन, विवेचन आदि का भी विपुल प्रचलन था । १9 रसायनों का सेवन कराकर भी चिकित्सा की जाती थी। १२
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चिकित्सक को 'प्राणाचार्य' कहा जाता था । १3 पशुचिकित्सक भी हुआ करते थे । १४ निष्णात वैद्यको 'दृष्टपाठी' (प्रत्यक्षकर्माभ्यास द्वारा जिसने वास्तविक अध्ययन किया है) कहा गया है । १५
'निशीथचूर्ण' में अनेक शास्त्रों का नामतः उल्लेख मिलता है। तत्कालीन अनेक वैद्यों का उल्लेख भी आगम ग्रन्थों में मिलता है। 'विपाकसूत्र' में विजय नगर के धन्वन्तरि नामक चिकित्सक का वर्णन है । १७
रोगों की उत्पत्ति वात, पित्त, कफ और सन्निपात से बतायी गयी है । रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बताये गये हैं— अत्यन्त भोजन, अहित कर भोजन, अतिनिद्रा, अतिजागरण, पुरीष का निरोध, मूत्र का निरोध, मार्गमरण, मूत्र वेग रोकने से दृष्टिहानि और
पुरीष के वेग को रोकने से
गमन, भोजन की अनियमितता, काम विकार । वमन के वेग को रोकने से कुष्ठरोग की उत्पत्ति होती है । २०
'आचारांगसूत्र' में १६ रोगों का उल्लेख है गंडी (गंडमाला), कुष्ठ, राजयक्ष्मा, अपस्मार, काणिव (काप्य अक्षि रोग ), जिमिय (जड़ता, कुणिय (हीमांगता), सुजय (कुबड़ापन) उदर रोग, मूकत्व, सूनीय (शोध), विनासणि
( भस्मक रोग), देवई (कम्पन), पीठसंधि (पंगुत्व), सिलीक्य ( श्लीपद) और मधुमेह २१
इसी प्रकार आगम साहित्य में व्याधियों की औषधि चिकित्सा और शल्यचिकित्सा का भी वर्णन मिलता है । सर्प कीट आदि के विषों की चिकित्सा भी वर्णित है। सुवर्ण को उत्तम विषनाशक माना गया है। गंडमाला, अर्श, भगंदर, व्रण, आघात या आगन्तुज व्रण आदि के शल्यकर्म और सीवन आदि का वर्णन भी है ।
मानसिक रोगों और भूतावेश-जन्य रोगों में मौतिक चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है ।
जैन आगम ग्रन्थों में आरोग्यशालाओं (तेगिन्यसाल चिकित्साशाला) का उल्लेख मिलता है। यहाँ वेतन भोगी चिकित्सक, परिचारक आदि रखे जाते थे । २२
वास्तव में, सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में उपलब्ध आयुर्वेदीय संदर्भों का संकलन और विश्लेषण किया जाना अपेक्षित है ।
'प्राणावाय' - परम्परा का साहित्य
जैन- आयुर्वेद 'प्राणावाय' का ऊपर उल्लेख किया गया है। इसका विपुल साहित्य प्राचीनकाल में अवश्य रहा होगा । अब केवल उग्रादित्याचार्य विरचित "कल्याणकारक" नामक ग्रंथ मिलता है । २३ यही एकमात्र प्राणावाय सम्बन्धी उपलब्ध ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राणावाय के अवतरण की कथा वर्णित है । इस परम्परा के अनुसार
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