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४७० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
संग्रह, जिन्हें " आम्नाय " ग्रन्थ कहते हैं) भी मिलते हैं। इनका अनुभूत प्रयोगावली के रूप में अवश्य ही बहुत महत्त्व हैं ।
(८) जैनाचार्यों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही मुख्यरूप से चिकित्सा शास्त्र का प्रतिपादन किया है । जैसे अहिंसा के आदर्शानुरूप उन्होंने मद्य, मांस और मधु के प्रयोग का सर्वथा निर्देश नहीं किया है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है । इस अहिंसा का आपत्काल में भी विचार रखा है। इसका यही एकमात्र उद्देश्य था कि मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य पारमार्थिक स्वास्थ्य प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है ।
(६) चिकित्सा में उन्होंने वनस्पति, खनिज, क्षार, रत्न, उपरत्न, आदि का विशेष उपयोग बताया है। (१०) शरीर को स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट और नीरोग रलकर केवल ऐहिक भोग (इन्द्रियमुख भोगना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के मध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना ही जैनाचार्यों का प्रधानउद्देश्य था । इसके लिए उन्होंने भक्ष्याभक्ष्य, सेव्यासेव्य आदि पदार्थों का उपदेश दिया है। जैन वैद्यक-ग्रन्थों के अपने सर्वेक्षण से मैं जिस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ उसके निम्न तीन पहलू हैं
एक जैन विद्वानों द्वारा निर्मित वैद्यक साहित्य अधिकांश में मध्ययुग में (६० सन् की ७ वीं शती के १६वीं दाती तक) निर्मित हुआ है।
द्वितीय उपलब्ध सम्पूर्ण वैद्यक-साहित्य से तुलना करें तो जैनों द्वारा निर्मित साहित्य उसके एक तृतीयांश से भी अधिक है ।
तृतीय- अधिकांश जैन वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन पश्चिमी भारत में यथा- पंजाब, राजस्थान, गुजरात कच्छ सौराष्ट्र और कर्णाटक में हुआ है। कुछ माने में राजस्थान को इस सन्दर्भ में अग्रणी होने का गौरव और श्रेय प्राप्त है | राजस्थान में निर्मित अनेक जैन वैद्यक ग्रन्थों, जैसे वैद्यवल्लभ ( हस्तिरुचिकृत ), योगचितामणि (हर्षकीर्तिसूरिकृत ) आदि का वैद्य जगत् में बाहुल्येन प्रचार-प्रसार उपलब्ध होता है। जैन विद्वानों द्वारा मुख्यतया निम्न तीन प्रकार से वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ—
(१) जैन यति-मुनियों द्वारा ऐच्छिक रूप से ग्रन्थ-प्रणयन ।
(२) जैन यति-मुनियों द्वारा किसी राजा अथवा समाज के प्रतिष्ठित व धनी श्र ेष्ठी पुरुषों की प्रेरणा या आज्ञा से ग्रन्थ-प्रणयन ।
(३) स्वतन्त्र जैन विद्वानों और वैद्यों द्वारा ग्रन्थ- प्रणयन ।
जैन आयुर्वेद - साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन
अध्ययन |
जैन- विद्वानों द्वारा प्रणीत आयुर्वेद साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं
प्रथम-वेग धर्म के आगम-ग्रन्थों और उनकी टीकाओं आदि में आये हुए आयुर्वेद विषयक सन्दर्भों का
द्वितीय -- जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत 'प्राणावाय' - सम्बन्धी ग्रन्थ और आयुर्वेद सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थ- टीकाएँ और योगसंग्रह आदि ।
जैन आगम साहित्य में उपलब्ध आयुर्वेद-परक उल्लेख
उपलब्ध प्राचीनतम जैन-धर्म-साहित्य 'द्वादशांग आगम' या 'जैन श्रुतांग' कहलाता है। जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उपदेशों को सुनकर उनके ही शिष्य गौतम ने विषयानुसार १२ विभागों में बाँटकर निर्मित किया था । इस साहित्य के पुनः दो विभाग हैं- ( १ ) अंगप्रविष्ट, और ( २ ) अंगबाह्य । 'अंग-प्रविष्ट' के अन्तर्गत आचारांग आदि बारह ग्रन्थ हैं । वीरनिर्वाणोपरान्त १०वीं शताब्दी में ग्यारह अंगों का पुनः श्रुत-परम्परा द्वारा संकलन किया गया । 'अंगबाह्य' के १४ भेद माने गये हैं । इनमें 'दशवैकालिक' और 'उत्तराध्ययन' नामक ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । श्वेताम्बर आगम - साहित्य में इन दोनों ग्रन्थों को विशेष उच्चस्थान प्राप्त है । २
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