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0 कविराज राजेन्द्रप्रकाश भटनागर
[एम० ए०, भिषगाचार्य (स्वर्ण पदक प्राप्त) आयुर्वेदाचार्य, एच० पी० ए० (जाम०), साहित्यरत्न, प्राध्यापक, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, उदयपुर (राज.)]
जैनाचार्यों ने धर्म, दर्शन, इतिहास एवं काव्यों पर ही नहीं, किन्तु ज्योतिष एवं आयुर्वेद जैसे सार्वजनिक विषयों पर भी अनुपम ज्ञान पूर्ण लेखिनी चलाई है और काफी जनोपयोगी साहित्य का निर्माण किया है। पढ़िए आयुर्वेद में जैन साहित्य की देन ।
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जैन आयुर्वेद साहित्य : एक समीक्षा
शिरजल्ट
भारतीय संस्कृति में चिकित्सा का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित माना जाता रहा है। सुप्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रन्थ चरक संहिता में लिखा है-"न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यद् विशिष्यते" (च.चि०११४४६१) जीवनदान से बढ़कर अन्य कोई दान नहीं है। चिकित्सा (स्वास्थ्य के संरक्षण और रोगमुक्ति के उपाय) से कहीं धर्म, कहीं अर्थ (धन), कहीं मैत्री, कहीं यश और कहीं कार्य का अभ्यास ही प्राप्त होता है; अतः चिकित्सा कभी निष्फल नहीं होती
क्वचिद्धर्म: क्वचिदर्थः क्वचिन्मंत्री क्वचिद्यशः ।
कर्माभ्यासः क्वचिच्चापि चिकित्सा नास्ति निष्फला ॥ अतएव, प्रत्येक धर्म के आचार्यों और उपदेशकों ने चिकित्सा कार्य द्वारा लोक-प्रभाव स्थापित करना उपयुक्त समझा । बौद्ध-धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध को 'भैषज्यगुरु' का विशेषण प्राप्त था। इसी भांति, जैन आचार्यों ने भी चिकित्सा कार्य को धार्मिक शिक्षा और नित्य-नैमित्तिक कार्यों के साथ प्रधानता प्रदान की। धर्म के साधनभूत शरीर को स्वस्थ रखना और रोगी होने पर रोगमुक्त करना आवश्यक है। अद्यावधि प्रचलित 'उपाश्रय' (उपासरा) प्रणाली में जहाँ जैन यति सामान्य विद्याओं की शिक्षा, धर्माचरण का उपदेश और परम्पराओं का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वहीं वे उपाश्रयों को चिकित्सा-केन्द्रों के रूप में समाज में, प्रतिस्थापित करने में भी सफल हुए थे।
इस प्रकार सामान्यतया वैद्यक-विद्या को सीखना और निःशुल्क समाज की सेवा करना जैन यति के दैनिक जीवन का अंग बन गया, जिसका उन्होंने सफलता-पूर्वक निर्वाह, ऐलोपैथिक चिकित्सा-प्रणाली के प्रचार-प्रसार पर्यन्त यथावत् किया ही है । परन्तु, नवीन चिकित्सा प्रणाली के प्रसार से उनके इस लोक-हितकर कार्य का प्रायः लोप होता जा रहा है। जैन-आयुर्वेद "प्राणावाय"
जैन आयुर्वेद को 'प्राणावाय' कहा जाता है। जैन तीर्थंकरों की वाणी अर्थात् उपदेश को विषयों के अनुसार मोटे तौर पर बारह भागों में विभाजित किया गया है। जैन आगम में इनको 'द्वादशांग' कहते हैं। इन बारह अंगों में अन्तिम अंग का नाम 'दृष्टिवाद' है। दृष्टिवाद के पांच भेद हैं-१ पूर्वगत, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ परिकर्म, ५ चूलिका । 'पूर्व' के १४ प्रकार हैं । इनमें से बारहवें 'पूर्व' का नाम 'प्राणावाय' है । इस पूर्व में मनुष्य के आभ्यंतरमानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य-शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों, जैसे-यम, नियम, आहार, विहार और
औषधियों का विवेचन है तथा दैविक, भौतिक, आधिभौतिक, जनपदध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है।
"काय-चिकित्सा आदि आठ अंगों में संपूर्ण आयुर्वेद का प्रतिपादन, भूतशांति के उपाय, विषचिकित्सा और
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