________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य 373 -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. 6. शरीर को स्वस्थ, हृष्टपुष्ट और नीरोग रखकर केवल ऐहिक सुख भोगना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना ही जैनाचार्यों को अभिप्रेत था। इसके लिए उन्होंने भक्ष्याभक्ष्य, सेव्यासेव्य आदि पदार्थों का उपदेश दिया है। 7. जैन वैद्यकग्रन्थ, अधिक संख्या में प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध हैं। फिर भी, संस्कृत में रचित जैन वैद्यक ग्रन्थों की संख्या न्यून नहीं है। अनेक जैन वैद्यों के चिकित्सा और योगों सम्बन्धी गुटके (परम्परागत नुसखों के संग्रह, जिन्हें 'आम्नाय ग्रन्थ' कहते हैं) भी मिलते हैं, जिनका अनुभूत प्रयोगावली के रूप में अवश्य ही बहुत महत्त्व है। जैन आगम साहित्य में आयुर्वेद सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होते हैं, उन पर स्वतन्त्र रूप से विस्तार से अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। इस प्रकार जैन विद्वानों द्वारा आयुर्वेद सम्बन्धी जो रचनाएं निर्मित की गई हैं, उन पर संक्षेप में ऊपर प्रकाश डाला गया है।। __ संक्षेप में, जैन विद्वानों और यति-मुनियों द्वारा जनसमाज में चिकित्सा-कार्य और वैद्यक ग्रन्थ प्रणयन द्वारा तथा अनेक उदारमना जैन श्रेष्ठियों द्वारा धर्मार्थ (निःशुल्क) चिकित्सालय और औषधालय या पुण्यशालाएं स्थापित किये जाने से भारतीय समाज को सहयोग प्राप्त होता रहा है। निश्चित ही, यह देन सांस्कृतिक और वैज्ञानिक रष्टि से महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। विहितं साधुजनः समस्तै?रापराधं हि मुषाप्रवाद / अन्तर्दरिद्र नितरामभद्र, समाद्रियन्ते न कदापि सन्तः // -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (चन्दनमुनि रचित) असत्य भाषण सभी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है, घोर अपराध है, उसमें दारिद्रय-दैन्य अन्तनिहित है, वह अत्यन्त अभद्र है। उत्तम पुरुष उसे कभी नहीं अपनाते / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org