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-- चतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - उद्दिष्ट-त्याग-प्रतिमा - इसमें साधक गृहस्थ होते हुए दिगम्बर-परम्परा५२ श्वेताम्बर-परम्परा५३ भी साधु की भाँति आचरण करता है।
पंच महाव्रत
पंच महाव्रत इस प्रकार प्रतिमाएँ तपसाधना की क्रमशः बढ़ती हुई
पंचेन्द्रियों का संयम पंचेन्द्रियों का संयम अवस्थाएँ हैं, अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं
पंच समितियाँ
अरात्रि भोजन के गुण स्वत: ही समाविष्ट होते जाते हैं। फलतः साधक निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हए अंत में पूर्ण निवृत्ति के षडावश्यक
आंतरिक पवित्रता आदर्श को प्राप्त करता है।
केशलुंचन
भिक्षु-उपाधि की पवित्रता षडावश्यक- षडावश्यक जिसे श्रावक के छह आवश्यक
नग्नता
क्षमा कर्म भी कहा जाता है,५० श्रावक-जीवन के आवश्यक कर्म हैं।
अस्नान
अनासक्ति जो इस प्रकार हैं -
भूशयन
मन, वचन और काय की १. देवपूजा - अरिहंत प्रभु की प्रतिमाओं का पूजन
सत्यता अथवा उनके आदर्श स्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान करना।
अदन्तधावन
छह प्रकार के प्राणियों का २. गुरुसेवा - भक्तिपूर्वक गुरु की वंदना करना, उनका
संयम सम्मान करना तथा उनके उपदेशों का श्रवण करना।
खड़े होकर भोजन ग्रहण करना तीन गुप्ति । ३. स्वाध्याय - आत्म-स्वरूप का चिन्तन-मनन करना।
एक समय भोजन करना आदि। सहनशलीता,संलेखना आदि। ४. संयम - वासनाओं और तृष्णाओं पर अंकुश रखना। ५. तप - तप के द्वारा इन्द्रियों का दमन किया जाता है,
मूलगुणों के संबंध में जहाँ दिगम्बर-परम्परा बाह्य तत्त्वों
. पर अधिक बल देती है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा आंतरिक विशुद्धि जिससे शारीरिक प्राकृतिक या अन्यकृत पीडा को सहन करने
को अधिक महत्त्व देती है। में समर्थ हो सकें। ६. दान - प्रतिदिन श्रमण, स्वधर्मी बंधुओं और असहायों
. पंच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को पंच महाव्रत के नाम से जाना जाता है। को कुछ न कुछ दान करना।
१. अहिंसा - किसी भी जीव की तीन योग और तीन श्रमणाचार या श्रमणों की आचार संहिता - श्रमण
करण से हिंसा न करना अहिंसा है।५४ तीन योग और तीन करण के व्रत महाव्रत कहलाते हैं, क्योंकि साधु या निर्ग्रन्थ हिंसादि
से हिंसा न करना को इस प्रकार समझ सकते हैं - का पूर्णत: त्याग करता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह योग-सिद्धि के मूल साधन हैं। साधु समाचारी के विषय में कहा गया है कि गुरु के समीप बैठना, विनय करना, २. मन से हिंसा न करवाना। निवास स्थान की शुद्धि रखना, गुरु के कामों में शांतिपूर्वक मन से हिंसा का अनुमोदन न करना। सहयोग करना, गुरु-आज्ञा को निभाना, त्याग में निर्दोषता, ४. वचन से हिंसा न करना। भिक्षावृत्ति से रहना, आगम का स्वाध्याय करना एवं मृत्यु आदि ५. वचन से हिंसा न करवाना। का सामना करना आवश्यक है।५१ दिगम्बर और श्वेताम्बर ६. वचन से हिंसा का अनुमोदन न करना। दोनों ही परम्पराओं में साधु के क्रमश: २८ एवं २७ मूलगुण काय से हिंसा न करना। माने गए हैं, जो इस प्रकार हैं -
काय से हिंसा न करवाना। ९. काय से हिंसा का अनुमोदन न करना।
८.
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