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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - देखकर शब्द संकेत करना।
दर्शनप्रतिमा - अध्यात्म मार्ग की यथार्थता के संबंध में (घ) रूपानुपात - हाथ, मुँह, सिर आदि से संकेत करना।
दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा का होना दर्शनप्रतिमा है। (ङ) पुद्गलप्रक्षेप - बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय
व्रत-प्रतिमा - गृहस्थ जीवन के पाँच अणव्रतों. तीन जताने के लिए कंकड़ आदि फैंकना।
गुणवतों का निर्दोष रूप से पालन करना व्रत-प्रतिमा है। ४. अतिथि-संविभाग - अपने निमित्त बनाई हुई अपने
सामायिक-प्रतिमा - समत्व के लिए किया जाने वाला अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना
प्रयास सामायिक कहलाता है। श्रावक साधक को नियमित रूप अतिथिसंविभाग है। अन्य व्रतों की भाँति इसके भी पाँच अतिचार
से तीनों संध्याओं में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप में समत्व हैं।४५ जिनसे साधकों को बचना चाहिए -
की आराधना करनी होती है। (क) सचित्त निक्षेप - सचित्त पदार्थों से आहारादि को ढकना
प्रोषधोपवास-प्रतिमा - प्रत्येक माह की अष्टमी और ताकि श्रमण आदि उसे ग्रहण न कर सकें।
चतुर्दशी को गृहस्थी के समस्त क्रिया-कलापों से अवकाश
पाकर उपवास सहित शुद्ध भावना के साथ आत्मसाधना में रत (ख) सचित्त पिधान - आहारादि वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर
रहना प्रोषधोपवास प्रतिमा है। रख देना।
नियम-प्रतिमा - इसमें पूर्वाक्त प्रतिमाओं का पालन (ग) कालातिक्रम - भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन ।
___ करते हुए पाँच विशेष नियमों के व्रत लिए जाते हैं - स्नान नहीं बनाना।
करना, रात्रि भोजन नहीं करना, धोती की एक लाँग नहीं बांधना, (घ) परव्यपदेश - न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरों दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा की बताना।
निश्चित करना और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिन रात्रि (ङ) मात्सर्य - ईर्ष्यापूर्वक दान देना मात्सर्य है।
पर्यन्त देहासक्ति त्यागकर कायोत्सर्ग करना। ग्यारह प्रतिमाएँ - प्रतिमाएँ आत्म-विकास के क्रमिक
ब्रह्मचर्य-प्रतिमा - इसमें श्रावक दिन की भाँति रात्रि में सोपान हैं, जिनके सहारे श्रावक अपनी शक्ति के अनुरूप मुनि- '
भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। दीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में पहुँचता है। प्रतिमा का अर्थ होता सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा - श्रावक साधक सभी है - प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष, तप विशेष अथवा अभिग्रह प्रकार के सचित्त आहार का त्याग कर देता है, लेकिन आरंभी विशेष।४६ जैनागमों में प्रतिमाओं की संख्या ग्यारह मानी गई हिंसा का त्याग नहीं करता है। है।४७ परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में प्रतिमा के
आरंभत्यागप्रतिमा - श्रावक साधक मन, वचन एवं विषय में अंतर देखने को मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा में
काम से कृषि सेवा, व्यापार आदि को आरंभ करने का त्याग
का प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं - दर्शन, व्रत, सामायिक,
गन, व्रत, सामायिक कर देता है किन्तु दूसरों से आरंभ करवाने का त्याग नहीं प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्त-त्याग, आरंभ-त्याग,
करता। प्रेष्य-परित्याग, उद्दिष्ट त्याग एवं श्रमणभूत।८ जबकि दिगम्बर परम्परा में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त-त्याग, रात्रि
परिग्रह-त्याग-प्रतिमा - श्रावक उस सम्पत्ति पर से भी भुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ-त्याग, परिग्रह-त्याग, अनुमति-त्याग
अपना अधिकार हटा लेता है तथा निवृत्ति की दिशा में एक एवं उदिदष्ट-त्याग का वर्णन मिलता है। दोनों परम्पराओं में
कदम आगे बढ़कर परिग्रह विरत हो जाता है। प्रतिमा के प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि दोनों में कोई अनुमति-विरत-प्रतिमा - गृहस्थ साधक ऐसे आदेशों विशेष अंतर नहीं है।
और उपदेशों से दूर रहता है, जिनके कारण किसी भी प्रकार की स्थावर या त्रस हिंसा की संभावना होती है।
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