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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ होता है, वैसे ही अणुव्रतों के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण लगता है। यही कारण है कि अणुव्रतों को श्रावक का मूलगुण कहा जाता है। महाव्रतों का पालन तीन योग यानी मन, वचन, काया तथा तीन करण यानी करना, करवाना और अनुमोदन करना, से पालन किया जाता है। २० जबकि अणुव्रतों का पालन तीन योग तथा दो करण (करना, करवाना) से किया जाता है। श्रावक के मूलगुण रूपी पाँच अणुव्रतों का विवरण इस प्रकार है -
१. स्थूल प्राणातिपातविरमण गृहस्थ साधक स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता है। इसलिए इस अणुव्रत का नाम स्थूल प्राणातिपात विरमण रखा गया है।२२ इसे अहिंसाणुव्रत भी कहा जाता है। जैसा कि उपासक - दशांगसूत्र में कहा गया है कि मैं किसी भी निरपराध - निर्दोष स्थूल त्रस प्राणी की जानबूझकर संकल्पपूर्वक मन, वचन और कर्म से न तो स्वयं हिंसा करूँगा और न करवाऊँगा । २३ आचार्य हेमचन्द्र ने तो यहाँ तक कहा है - 'अहिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति का अभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करे । २४
श्रावक द्वारा सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी कभी-कभी प्रमादवश दोष लगने की संभावना रहती है। अतः निम्नलिखित दोषों से साधक को बचना चाहिए । २५
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( क ) बन्ध - किसी भी त्रस प्राणी को कठिन बंधन से बाँधना या उसे किसी भी इष्ट स्थान पर जाने से रोकना । अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को निश्चित समय से अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के उपरान्त कार्य लेना आदि बंध है।
(ख) वध - किसी भी प्राणी को मारना वध है। इनके अतिरिक्त निर्दयतापूर्वक क्रोध में अपने आश्रित किसी भी व्यक्ति को मारना पीटना, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल आदि को लकड़ी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, किसी का अनैतिक ढंग से शोषण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि वध के अंतर्गत ही आते हैं।
(ग) छविच्छेद - किसी भी प्राणी का अंगोपांग काटना छविच्छेद कहलाता है।
(घ) अतिभार प्राणियों से आवश्यकता से अधिक,
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जैन-साधना एवं आचार
उसकी शक्ति से ज्यादा काम लेना या बोझा लाद देना अतिभार है। (ङ) अन्नापाननिरोध नौकर आदि को समय पर खाना न देना, पूरा खाना न देना, अपने पास संग्रह होने पर भी आवश्यकता के समय किसी की सहायता न करना आदि अन्नापान -निरोध कहलाता है।
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२. स्थूल मृषावाद - असत्य या झूठे व्यवहार का त्याग करना स्थूल मृषावाद है। जैसे हिंसा को न करना प्राणातिपात विरमण है और उससे साधक को बचना आवश्यक है । उसी प्रकार स्थूल मृषावाद यानी झूठ से बचना भी शक्य है।
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उपासकदशांग में कहा गया है कि मैं स्थूल मृषावाद का यावत् जीवन के लिए मन, वचन और काम से त्याग करता हूँ, मैं न स्वयं मृषा भाषण करूँगा न अन्य से करवाऊँगा । २६ झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख करते हुए श्रावक - प्रतिक्रमण में पाँच प्रकार के स्थूल मृषा का निरूपण किया गया है।२७ जो इस प्रकार हैं
(१) पुत्र-पुत्रियों के विवाह के निमित्त सामने वाले पक्ष के सम्मुख झूठी प्रशंसा करना - करवाना आदि ।
(२) पशु-पक्षियों के क्रय-विक्रय में मिथ्या प्रशंसा का आश्रय लेना ।
(३) भूमि के संबंध में झूठ बोलना - बुलवाना | (४) झूठी गवाही देना- दिलवाना और (५) रिश्वत खाना खिलाना आदि ।
इसी को आचार्य हेमचन्द्र ने कन्यालीक, गो- अलीक, भूमिअलीक, न्यासापहार तथा कूट-साक्षी आदि के रूप में निरूपित किया है और कहा है कि ये सभी लोक-विरुद्ध हैं, विश्वासघात के जनक हैं तथा पुण्य-नाशक हैं, इसलिए श्रावकों को स्थूल असत्य से बचना चाहिए। " साधक कितनी भी सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद - विरमण का पालन करे, फिर भी दोषों की संभावना बनी रहती है। उपासकदशांग में इन्हीं दोषों से बचने के लिए पाँच प्रकार बताए गये हैं२९
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(क) सहसा - अभ्याख्यान - बिना सोचे-समझे किसी पर झूठा आरोप लगा देना, किसी के प्रति लोगों में गलत धारणा पैदा करना, सज्जन को दुर्जन कहना आदि सहसा - अभ्याख्यान
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