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-- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार २. प्रवृत्ति - निर्दिष्ट व्रत-नियमों या अनुष्ठानों का एकाग्रता परम्परा में दो आचार-संहिताओं का विधान किया गया है। एक पूर्वक सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है।
का नाम है - श्रावकाचार, तो दूसरी का नाम है - श्रमणाचार। ३.विध्नजय - यम-नियम आदि का पालन करते समय उपस्थित श्रावकों की आचार संहिता - सामान्य भाषा में गृहस्थ के बाह्य एवं आंतरिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय लिए श्रावक शब्द का प्रयोग होता है। जैनागमों में श्रावक के कहलाता है।
लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखने को मिलते हैं। यथा - देश - ४. सिद्धि - सिद्धि से चित्त शद्धि में साधक को सम्यक दर्शनादि संयमी, गृहस्थ, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, आगारी की प्राप्ति होती है और वह आत्मानुभव में किसी प्रकार की
आदि।१९ श्रावकों के प्रकारों को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कठिनाई का अनुभव नहीं करता। उसकी कषाय से उत्पन्न सारी
कोई श्रावकों के दो भेदों को मानते हैं, तो कोई तीन और कोई चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवर्ती जीवों के प्रति दया,
चार। जैसे धर्मामृत में श्रावक के तीन प्रकार बताए गए हैं - १. आदर-सत्कार आदि का ख्याल रखने लगता है।
पाक्षिक २. नैष्ठिक और ३. साधक।१२ चारित्रसार में श्रावक को
ब्रह्मचर्य २. गृहस्थ ३. वानप्रस्थ और ४. संन्यास-इन चार ५. विनियोग - इस अवस्था में साधक में धार्मिक वृत्तियों की
आश्रमों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार धर्मबिन्दु क्षमता आ जाती है तथा निरंतर आत्मिक विकास होने लगता ।
में आचार्य हरिभद्र ने १. सामान्य और २. विशेष के रूप में है। फलतः साधक में परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की
श्रावकों के दो भेद बताए हैं।१४ वृद्धि होती है। वृद्धि की यही अवस्था विनियोग कहलाती है।
श्रावकधर्म के विषय में भी जैनाचार्य एकमत नहीं हैं। इनके अतिरिक्त विभिन्न व्रतों, क्रियाओं. विधियों, नियम
जैसा कि डॉ. मोहनलाल मेहता ने अपनी पुस्तक 'जैन आचार' उपनियमों आदि का विधान किया गया है, जिनमें आसन,
में उल्लेख किया है - उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख माने गाए हैं।
श्रावकाचार आदि में संलेखना सहित बारह व्रतों के आधार पर कहा भी गया है कि ध्यानादि उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं,
श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया गया है। वहीं आचार्य कुन्दकुन्द इसलिए ये चारित्र ही हैं।१०
ने चारित्र-प्राभृत, स्वामी कार्तिकेय ने द्वादश अनुप्रेक्षा में एवं जैन-परम्परा दो प्रकार की आचार-संहिताओं का विधान आचार्य वसनन्दि ने वसनन्दि-श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं करती है। एक श्रावकों के लिए और दूसरी श्रमणों के लिए। के आधार पर श्रावक धर्म का निरूपण किया है।१५ क्योंकि दोनों की साधनाभूमि अथवा जीवनव्यवहार अलग
श्रावक के बारह व्रत - योगशास्त्र में श्रावक के बारह व्रत इस अलग हैं। मुनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों
प्रकार कहे गए हैं - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार । का त्यागी होती है, वहीं श्रावक कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है।
शिक्षाव्रत।१६ आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ ही इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग आचारों का विधान किया
बारह व्रतों का उल्लेख किया है। परन्तु कहीं-कहीं पाँच अणुव्रतों गया है। श्रमणों की तुलना में श्रावकों को परिस्थिति एवं काल
को मूलगुण भी माना गया है और इनके साथ मद्य, माँस एवं की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है,
मधु का त्याग भी मूलगुण के अंतर्गत रखा गया है। इसी प्रकार फिर भी योग-साधना के लिए उसे पूरी छूट है। मुनि या श्रमण तो
कहीं अणुव्रतों के साथ जुआ, मद्य एवं माँस के त्याग को भी पूर्ण विरक्त या गृह-त्यागी होता है, जिससे वह योग-साधना करने में सक्षम होता है, लेकिन एक श्रावक के सर्वत्यागी बनने
मूलगुण माना गया है।१९ में शंका उपस्थित होती है, क्योंकि जीवकोपार्जन के लिए उसे अणुव्रत - जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महाव्रतों विविध उद्योग आदि का आलंबन लेना पड़ता है। ऐसे श्रमण की का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रावक के लिए पाँच भाँति वह भी सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर योगसाधना से अणुव्रतों का विधान किया है। या यों कहा जा सकता है कि संपन्न हो सकता है। इन्हीं दष्टियों को ध्यान में रखते हए जैन- जैसे महाव्रतों के अभाव में श्रमण का श्रामण्य निर्जीव-सा प्रतीत
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