________________
जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन
१४१
मन, वाणी और कर्म से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया था कि सच्ची शुद्धि आत्मा में सद्गुणों के विकास में निहित है।
इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति भी एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जो प्रतिमाह सहस्रों का दान करने की अपेक्षा जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है।' इसी प्रकार धम्मपद में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि सौ वर्षों तक हजारों को दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाए और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे, तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध आचार दर्शनों ने तत्कालीन नैतिक मान्यताओं को एक नई दृष्टि और आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही नैतिकता के सम्बन्ध में जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श देकर अन्तर्मुखी बनाया। इन आचार दर्शनों ने उस युग के नैतिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित किया । लेकिन मात्र इतना ही नहीं कि उन्होंने अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया था वरन् इन आचार दर्शनों में वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान की शक्ति भी है। अत: यह विचार अपेक्षित है कि युगीन परिस्थितियों में समालोच्य आचार दर्शनों का और विशेष रूप से जैन दर्शन का क्या स्थान हो सकता है, इस पर विचार कर लिया जाय ।
युगीन परिस्थितियों में जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन जैन आचार दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे वह प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं। मानव-जीवन की समग्र समस्याएँ विषमताजनित ही हैं । वस्तुतः विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान है। ये विषमताएँ निम्न हैं—१. सामाजिक बैषम्य, २. आर्थिक औषय, ३. वैचारिक वैषम्य, ४. मानसिक वैषम्य । अब हमें विचार यह करना है कि क्या जैन आचार दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर समत्व का संस्थापन करने में समर्थ है ? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की विषमताओं के कारणों का विश्लेषण और जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके समाधानों पर विचार करेंगे।
१. सामाजिक विषमता चेतन जगत् के अन्य प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है । यह सामुदायिक जीवन है । सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उन सम्बन्धों की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं(१) व्यक्ति और परिवार, (२) व्यक्ति और जाति, (३) व्यक्ति और समाज, (४) व्यक्ति और राष्ट्र, और (५) व्यक्ति और विश्व । इन सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग द्वेष के आधार पर खड़ा होता है तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग का तत्त्व द्वष का सहगामी होकर काम करने लगता है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण मेरा या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं । यही
-
१.
उत्तरा० ६।४०. धम्मपद १०६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org