________________
जैन आगमों में योगदृष्टि
D डॉ० सुभाष कोठारी
आगमों के वैचारिक पक्ष को जब हम सामने रखते हैं तो उनमें प्रतिपादित विषयों का स्वतः हो बोध हो जाता है और हमारी दृष्टि श्रागम विषयक बन जाती है। श्रागमों में प्रायः सिद्धान्त, दर्शन, गणित, ज्योतिष आदि विषयों का समावेश हुआ है । यह मात्र धार्मिक या सैद्धान्तिक न होकर सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता का परिचायक भी है। इसी के अन्तर्गत मनुष्य को अपने शक्तिबल एवं बौद्धिकबल को विकसित करने के लिए जिन साधनों का वर्णन प्राप्त होता है वे साधन सर्वोपरि एवं महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं । साधनामार्ग के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है । चित्त की एकाग्रता के लिए विविध प्रकार के आसन, प्राणायाम की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी ध्यान की। इससे शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक इन तीनों का विकास होता है, जिसे प्रागमों की दृष्टि से योग की संज्ञा दी गई है ।
योग को आगमों में शान्ति के मार्ग की खोज के लिए प्रयोग किया जाता रहा है । सर्वप्रथम जब हम आचारांग को देखते हैं तो यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इसमें जितने भी सूत्र हैं वे सभी किसी न किसी पक्ष को लिए हुए हैं, इसका पंचम सूत्र चार दृष्टियों को प्रतिपादित करता है ।
श्रायावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी ।
अर्थात् श्रात्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी । ये चार विचारधाराएँ योग से सम्बन्धित हैं । जो व्यक्ति श्रात्मा को जानता है वह लोक की वास्तविकता को जानता है । मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए इसको भी वह अच्छी तरह से जानता है । इसको आचारांग में "परिण्णा" अर्थात् विवेक की संज्ञा दी है ।
इस तरह की विचारधारात्रों का क्रम प्रत्येक जैन श्रागम में है । जिसके आधार पर निम्न योगों को विद्वानों के सामने रखा जा सकता है—
१. अध्यात्मयोग |
२. समतायोग |
३. ध्यानयोग |
४. भावनायोग |
५. परिमार्जनयोग |
अध्यात्मयोग
आत्मसाधना के लिए शरीर और मन की शक्ति को जागृत करना होता है। जिसका विवेचन जैन आगमों में स्पष्ट है । क्योंकि जैन श्रागम में इन्द्रिय और मन की शक्ति के क्षीण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
आसनस्थ तम आत्मस्थ म०
तब हो सवे
आश्वस्त जठ
www.jainelibrary.org