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या चरित्र का उदात्तीकरण है। जब तक शिक्षा को केवल जानकारियों तक सीमित रखा जायेगा तब तक वह व्यक्तित्व की निर्माता नहीं बन सकेगी। दशवैकालिक सूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि
१. मुझे श्रुत ज्ञान ( आगम ज्ञान ) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये ।
२. मैं एकाग्रचित होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये। ३. मैं अपने आप को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये।
४. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये । ११
आचरण का हेतु है, मात्र वह ज्ञान जो व्यक्ति की आचार शुद्धि का कारण नहीं होता, निरर्थक ही माना गया है। जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा से रहित शस्त्र निरर्थक होता है, उसी प्रकार से रहित आचरण और आचरण से रहित ज्ञान निरर्थक होता है।
इस प्रकार दशवैकालिक के अनुसार अध्ययन का प्रयोजन ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता तथा धर्म (सदाचार ) में स्वयं स्थित होना तथा दूसरों को स्थित करना माना गया है। जैन आचार्यों की दृष्टि में जो शिक्षा चरित्र शुद्धि में सहायक नहीं होती, उसका कोई अर्थ नहीं है। चंद्रवेध्यक नामक प्रकीर्णक में ज्ञान और सदाचार में तादाम्य स्थापित करते हुए कहा गया है। कि जो विनय है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है उसे ही विनय कहा जाता है। १२ श्रुतज्ञान में कुशल हेतु और कारण का जानकार व्यक्ति भी यदि अविनीत और अहंकारी है तो वह ज्ञानियों द्वारा प्रशंसनीय नहीं है। १३ जो अल्पश्रुत होकर भी विनीत है वही कर्म का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है, जो बहुश्रुत होकर भी अविनीत, अल्पश्रद्धा और संवेग युक्त है वह चरित्र की आराधना नहीं कर पाता है। १४ जिस प्रकार अंधे व्यक्ति के लिये करोड़ों दीपक भी निरर्थक हैं उसी प्रकार अविनीत (असदाचारी) व्यक्ति के बहुत अधिक शास्त्रज्ञान का भी क्या प्रयोजन ? जो व्यक्ति जिनेन्द्र द्वारा उपदृष्ट अति विस्तृत ज्ञान को जानने में चाहे समर्थ नही हो, फिर भी जो सदाचार से सम्पन्न है वस्तुतः वह धन्य है और वही जानी है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि ज्ञान
जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा प्राप्ति में बाधक निम्न पाँच कारणों का उल्लेख हुआ है (१) अभिमान (२) क्रोध (३) प्रमाद (४) आलस्य और (५) रोग। इसके विपरीत उसमें उन आठ कारणों का भी उल्लेख हुआ है जिन्हें हम शिक्षा प्राप्त
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करने का साधक तत्व कह सकते हैं - ( १ ) जो अधिक हँसीमजाक नहीं करता हो (२) जो अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण रखता हो, (३) जो किसी की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता हो (४) जो अशील अर्थात् आधारहीन न हो (५) जो दूषित आचार वाला न हो (६) जो रस लोलुप न हो (७) जो क्रोध न करता हो और (८) जो सत्य में अनुरक्त हो । १७ इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों से रहा है।
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वस्तुतः जैन आचार्यों को ज्ञान और आचरण का द्वैत मान्य नहीं है वे कहते हैं- जो ज्ञान है, वही आचरण है, जो आचरण है, वही आगम-ज्ञान का सार है । १८ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में उस शिक्षा को निरर्थक ही माना गया है जो व्यक्ति का चारित्रिक विकास या व्यक्तित्व विकास करने में समर्थ नहीं है। जो शिक्षा मनुष्य को पाशविक वासनाओं से ऊपर नहीं उठा सके, वह वास्तविक शिक्षा नहीं है।
जैन आचार्य शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन और जगत के सम्बन्ध में जानकारियों से भर देना नहीं मानते हैं, अपितु वे इसका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास या सद्गुणों का विकास मानते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि वे शिक्षा को आजीविका या कलात्मक कुशलता से अलग कर देते हैं। रायपसेनीयसुत में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है - १. कलाचार्य २. शिल्पाचार्य एवं ३. धर्माचार्य । १९ उसमें इन तीनों आचार्यों के प्रति शिष्य के कर्तव्यों का भी निर्देश है इससे यह फलित है कि जैन चिन्तकों की दृष्टि में शिक्षा व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कलाचार्य का कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा कलाचार्य देते थे। वस्तुतः आज हमारे विश्वविद्यालयों में कला, सामाजिक विज्ञान एवं विज्ञान संकाय जो कार्य करते हैं, उन्हीं से मिलता-जुलता कार्य कलाचार्य का था। जैनागमों में पुरुष की ६४ एवं स्त्री की ७२ कलाओं का निर्देश उपलब्ध है । २° इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श करती है।
कलाचार्य के बाद दूसरा स्थान शिल्पाचार्य का था । शिल्पाचार्य वस्तुतः वह व्यक्ति होता था जो आजीविका अर्जन से सम्बन्धित विविध प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देता था । आज जिस प्रकार विभिन्न औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थायें प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, उस काल में यही कार्य शिल्पाचार्य करते । इनके ऊपर धर्माचार्य का स्थान था इनका दायित्व वस्तुतः व्यक्ति के
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