________________
जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण
डॉ० तेजसिंह गौड़
जैन आगम ग्रंथ मूलतः प्राध्यात्मिक ग्रंथ हैं। फिर भी इन ग्रंथों में प्रसंगानुसार धर्मदर्शन के साथ ही इतर विषयों का भी विवरण उपलब्ध होता है। प्रस्तुत लघु निबंध के माध्यम से प्रागम ग्रंथों में उपलब्ध आयुर्वेद विषयक विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
जैन दृष्टि से आयुर्वेद की उत्पत्ति का विवरण नवीं शताब्दी में हुए आचार्य उग्रादित्याचार्य ने अपने आयुर्वेद ग्रंथ कल्याणकारक में इस प्रकार दिया है
"श्री ऋषभदेव स्वामी के समवसरण में भरत चक्रवर्ती प्रादि भव्यों ने पहुंचकर श्री भगवंत की सविनय वन्दना की और भगवान् से निम्नलिखित प्रकार से पूछने लगे---
'भो स्वामिन् ! पहले भोगभूमि के समय मनुष्य कल्पवृक्षों से उत्पन्न अनेक प्रकार की भोगोपभोग सामग्रियों से सुख भोगते थे। यहाँ भी खूब सुख भोगकर तदनन्तर स्वर्ग पहुंचकर वहाँ भी सुख भोगते थे। वहां से फिर मनुष्य भव में प्राकर अनेक पुण्य कार्यों को कर अपनेअपने इष्ट स्थानों को प्राप्त करते थे। भगवन् ! अब भारतवर्ष को कर्मभूमि का रूप मिला है। जो चरम शरीरी हैं व उपपाद जन्म में जन्म लेने वाले हैं, उनको तो अब भी अपमरण नहीं है । उनको दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है। परन्तु ऐसे भी बहुत से मनुष्य पैदा होते हैं जिनकी आयु लम्बी नहीं रहती और उनको वात, पित्त, कफादि दोषों का उद्रेक होता रहता है। उनके द्वारा कभी शांति और कभी उष्ण व कालक्रम से मिथ्या आहार सेवन करने में आता है। इसलिए अनेक प्रकार के रोगों से पीड़ित होते हैं। वे नहीं जानते कि कौन-सा आहार ग्रहण करना चाहिए और कौन-सा नहीं लेना चाहिये । इसलिये उनकी स्वास्थ्य-रक्षा के लिये योग्य उपाय बतावें। आप शरणागतों के रक्षक हैं । इस प्रकार भरत के प्रार्थना करने पर आदिनाथ भगवंत ने दिव्य-ध्वनि के द्वारा पुरुष लक्षण, शरीर, शरीर का भेद, दोषोत्पत्ति, चिकित्सा, कालभेद आदि सभी बातों का विस्तार से वर्णन किया। तदनन्तर उनके शिष्य गणधर व बाद के तीर्थंकरों ने व मुनियों ने आयुर्वेद का प्रकाश उसी प्रकार किया। वह शास्त्र एक समुद्र के समान है, गम्भीर है।"
इस विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन साहित्य में आयुर्वेद की परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के द्वारा प्ररूपित है और श्रुत-परम्परा से चली आ रही है। इस विवरण के पश्चात् हम आगम ग्रंथों में उपलब्ध आयुर्वेद विषयक उल्लेख को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
चिकित्सा के अंग-चिकित्सा के चार अंग होते हैं। जैसे-(१) वैद्य, (२) प्रोषध, (३) रोगी और (४) परिचारक या परिचर्या करने वाला।२ १. कल्याणकारक, सम्पादकीय, पृष्ठ २५-२६ २. स्थानांगसूत्र, ४।४।५१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org