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________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। जैसे श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अपितु मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद संबंध में दिगंबर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका यहाँ तत्-तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। संभवतः ये विद्वान् अर्धमागधी विशेष से। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण और महाराष्ट्री के अंतर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाए हैं तथा सातवीं शती से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर लिए अलग-अलग मॉडल अपनाए गये हैं। वररुचि के लिए ही चलते रहे। यही कारण है कि उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत है। जबकि हेमचन्द्र के लिए शौरसेनी श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं। जबकि वह मूलतः (महाराष्ट्री) प्राकृत है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के संबंध में 'शेषं तोय' श्रुति प्रधान नहीं है। प्राकृतवत्' (८.४.२८६) का अर्थ होगा, शौरसेनी महाराष्ट्री से यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा। कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्टी प्राकृत की य' क्या अर्धगामधी-आगम मूलतः शौरसेनी में थे? श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णतः मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ ___प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ. है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथरी और. सुदीप जैन ने प्रो. टाँटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि वल्लभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से "श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय प्रभावित हुए हैं। ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल टाँटिया जी जैसा विद्वान इस प्रकार की मिथ्या धारणा को गया।" इस संदर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम-साहित्य शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टाँटिया जी का यह पाठों में कहीं भी शौरसेनी का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। . कथन, कि पाली त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मलतः शौरसेनी इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगंबर परंपरा में मान्य में थे और फिर पाली और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए, सत्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत है तो उन्हें या सुदीप को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए। का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया कर चुके हैं। इस संबंध में दिगंबर परंपरा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो. जाता है तो एकरूपता के लिए नियम या व्यवस्था आवश्यक ए.एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके और अर्धमागधी भाषा की अमेक विशेषताएँ उत्तराधिकार के लिए भी व्याकरण के नियम आवश्यक हए और ये व्याकरण के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। इसमें स्वरपरिवर्तन, मध्यवर्ती नियम मख्यत: संस्कृत से गृहीत किए गए। जब व्याकरणशास्त्र व्यंजनों के परिवर्तन 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगंबर विद्वान् प्रो. खड़बड़ी का कहना कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार भाषा के शब्दरूप हैं? उदाहरण के लिए जब हम शौरसेनी के यहाँ एक ओर दिगंबर विद्वान इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्दरूप हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210575
Book TitleJain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ka Shaurseni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size2 MB
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