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मुनि श्रीपुण्यविजयजी महाराज जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय
[प्रस्तुत निबन्ध के रचयिता मुनि श्रीपुण्यविजयजी महाराज जैनागमसाहित्य, इतिहास और पुरातत्त्व के साथ ही संस्कृत, प्राकृत भाषाओं के तलस्पर्शी विद्वान् हैं, यह महत्त्वपूर्ण जानकारी देने वाला निबन्ध सन् १६६१ में श्रीनगर (कश्मीर) में हुई अखिल भारतीय प्राच्यविद्यापरिषद् के प्राकृत और जैनधर्म विभाग के अध्यक्ष पद से प्रस्तुत किया गया आपका अभिभाषण है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ था. मुनिश्री द्वारा किये गये कतिपय संशोधनों और परिवर्धनों के साथ वह यहां प्रकाशित किया जा रहा है.-सम्पादक
जैन आगमधर स्थविर और आचार्य जैनागमों में वर्तमान में उपलभ्यमान द्वादश अंगों की सूत्ररचना कालक्रम से भगवान् गणधर ने की. वीर-निर्वाण के बाद प्रारम्भिक शताब्दियों में इन आगमों का पठन-पाठन पुस्तकों के आधार पर नहीं, अपितु गुरुमुख से होता था. ब्राह्मणों के समान पढ़ने-पढ़ाने वालों के बीच पिता-पुत्र के सम्बन्ध की सम्भावना तो थी ही नहीं. वैराग्य से दीक्षित होने वाले व्यक्ति अधिकांशतया ऐसी अवस्था में होते थे, जिन्हें स्वाध्याय की अपेक्षा बाह्य तपस्या में अधिक रस मिलता था. अतएव गुरु-शिष्यों का अध्ययन-अध्यापनमूलक सम्बन्ध उत्तरोत्तर विरल होना स्वाभाविक था, जैन आचार की मर्यादा भी ऐसी थी कि पुस्तकों का परिग्रह भी नहीं रखा जा सकता था. ऐसी दशा में जैनश्रुत का उत्तरोत्तर विच्छेद होना आश्चर्य की बात नहीं थी. उसकी जो रक्षा हुई वही आश्चर्य की बात है. इस आश्चर्यजनक घटना में जिन श्रुतधर आचार्यों का विशेष योगदान रहा है, जिन्होंने न केवल मूल सूत्रपाठों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया अपितु उन सूत्रों की अर्थवाचना भी दी, जिन्होंने नियुक्ति आदि विविध प्रकार की व्याख्याएं भी की, एवं आनेवाली संतति के लिए श्रुतनिधिरूप महत्त्वपूर्ण सम्पत्ति विरासत रूप से दे गये, उन अनेक श्रुतधरों का परिचय देने का प्रयत्न करूंगा. इन श्रुतधरों में से कुछ तो ऐसे हैं जिनका नाम भी हमारे समक्ष नहीं आया है. यद्यपि यह प्रयत्नमात्र है-पूर्ण सफलता मिलना कठिन है, तथापि मैं आपको कुछ नई जानकारी करा सका तो अपना प्रयत्न अंशतः सफल मानूंगा. (१) सुधर्मस्वामी (वीर नि० ८ में दिवंगतः)-आचार आदि जो अंग उपलब्ध हैं वे सुधर्मस्वामी की वाचनानुगत माने जाते हैं. तात्पर्य यह है कि इन्द्रभूति आदि गणधरों की शिष्यपरम्परा अन्ततोगत्वा सुधर्मस्वामी के शिष्यों के साथ मिल गई है. उसका मुल सुधर्मस्वामी की वाचना में माना गया है. भगवती जैसे आगमों में यद्यपि भगवान् महावीर और इन्द्रभूति गौतम के बीच हुए संवाद आते हैं किन्तु उन संवादों की वाचना सुधर्मा ने अपने शिष्यों को दी जो परम्परा से आज उपलब्ध है—ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि आगमों के टीकाकारों ने एक स्वर से यही अभिप्राय व्यक्त किया है कि तत्तत् आगम की वाचना सुधर्मा ने जम्बू को दी. यद्यपि सुधर्मा की अंगों की वाचना का अविच्छिन्न रूप आज तक सुरक्षित नहीं रहा है फिर भी जो भी सुरक्षित है उसका सम्बन्ध सुधर्मा से जोड़ा जाता है, यह निर्विवाद है. गणधरों के वर्णनप्रसंग में सुधर्मा की जो प्रशंसा आती है उसे स्वयं सुधर्मा तो कर नहीं सकते, यह स्पष्ट है. अतएव तत्तत् सूत्रों के प्रारम्भिक भाग की रचना में आगमों के विद्यमान रूप के संकलनकर्ता का हाथ रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं.
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