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जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य : एक अध्ययन
- डॉ. सुदर्शनलाल जैन*
भगवान महावीर (ई.पू. छठी शताब्दी) की अर्थरूप वाणी से उपदिष्ट सिद्धान्तों के प्रतिपादक प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थों को जैनागम के नाम से जाना जाता है। सिद्धान्तविषयक सन्देह होने पर सन्देह-निवारणार्थ इन्हें आगम प्रभाव माना जाता है। गणधर या श्रुतज्ञ ऋषियों के द्वारा प्रणीत होने से "आर्षग्रन्थ" तथा श्रुत परम्परा से प्राप्त होने के कारण "श्रुतग्रन्थ" के रूप में भी ये जाने जाते हैं। इन्हें प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है -- 1. अंग प्रविष्ट (अंग) और 2. अंग बाहय।
अंग ग्रन्थ वे है जो भगवान महावीर के साक्षात शिष्यों (गणधरों) के द्वारा रचित हैं तथा अंगबाहय ग्रन्थ वे हैं जो उत्तरवर्ती श्रुतज्ञ आचार्यों के द्वारा रचित हैं। भगवान महावीर के साक्षात् शिष्यों के द्वारा रचित होने से अंग ग्रन्थ सर्वप्रधान है। इन्हें बौद्धों के "त्रिपिटक" की तरह "गणिपिटक"2 तथा ब्राहमणों के वेदों की तरह "वेद"3 भी कहा गया है। इनकी संख्या बारह नियत होने से इन्हें "द्वादशांग"4 के नाम से भी जाना जाता है। इस तरह अंग और अंगबाहय सभी ग्रन्थ अर्थरूप से महावीर प्रणीत हैं तथा शब्दरूप से गणधर प्रणीत या तदुत्तरवर्ती श्रुतज्ञ आचार्यों के द्वारा प्रणीत है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं.683 तक श्रुत परम्परा चली जो क्रमशः क्षीण होती गई। आगमों को लिपिबद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, जिससे सभी (12 अंग तथा 14 अंगबाह्य ) आगम ग्रन्थ लुप्त हो गये। इतना विशेष है कि वे मूल आगमों के नष्ट हो जाने पर भी दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग ग्रन्थान्तर्गत पूर्वो के अंशांश ज्ञाताओं द्वरा (वीरनिर्वाण १०वीं शताब्दी में) रचित षट्खण्डागम और कषायपाहुड' को तथा वीरनिर्वाण की 14वीं शताब्दी में रचित इनकी क्रमशः धवला और जयधवला टीकाओं को आगम के रूप में मानते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थों को भी आगम के रूप में स्वीकार करते हैं।
श्वेताम्बर परम्परानुसार देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण की अन्तिम वलभीवाचना (वीरनिर्वाणसं. 980 के करीब) के समय स्मति-परम्परा से प्राप्त आगम.ग्रन्थों को संकलित करके लिपिबद्ध किया गया। दृष्टिवाद नामक 12वाँ अंग ग्रन्थ उस समय किसी को याद नहीं था जिससे उसका संकलन नहीं किया जा सका। फलतः उसका लोप स्वीकार कर लिया गया। इस तरह अंगों की संख्या घटकर 11 रह गई।
अंगबाह्य आगम कितने हैं ? इस विषय में मतभेद है --- 1. दिगम्बर परम्परा -- 14 अंगबाहय ग्रन्थ हैं। जैसे -- 1. सामायिक, 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. वैनयिक, 6. कृतिकर्म, 7. दशवैकालिक, 8. उत्तराध्ययन, 9. कल्पव्यवहार, 10. कल्पाकल्प, 11. महाकल्प, 12. पुण्डरीक, 13. महापुण्डरीक और 14. निषिद्धिका। श्वेताम्बर परम्परानुसार इन 14 अंगबाहय के भेदों में प्रथम 6 भेद छह आवश्यक रूप हैं, दशवकालिक और उत्तराध्ययन का मूलसूत्रों में समावेश है, शेष 6 भेदों का अन्तर्भाव कल्प, व्यवहार और निशीथ नामक छेदसत्रों में है। 2. स्थानकवासी श्वेताम्बर परम्परा -- 21 अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। जैसे -- 12 उपांग, 4 मूलसूत्र ( उत्तराध्ययन, दशवकालिक, नन्दी, अनुयोगदार), 4 छेदसूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ) तथा 1 आवश्यक। 3. मूर्तिपूजक श्वेताम्बर परम्परा -- 34 अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। जैसे -- 12 उपांग, 5 छेदसूत्र ( पंचकल्प को
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