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जैन अनुमान की उपलब्धियां | २५ वस्ततः प्रक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकों ने अनुमान को इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन 'न्याय (तर्क-अनुमान) दर्शन' के नाम से ही विश्रुत हो गया। बौद्ध ताकिकों द्वारा चिन्तन
असंग, वसुबन्धु दिङ नाग, धर्मकीति प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने न्यायदर्शन की समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओं के आधार पर अनुमान का सूक्ष्म और प्रचर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तन का अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र भारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुअा और अनुमान की विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़ने के साथ सूक्ष्म-से-सूक्ष्म एवं जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध ताकिकों के चिन्तन ने तर्क में आयी कुण्ठा को हटा कर और सभी प्रकार के परिवेशों को दूर कर उन्मुक्त भाव से तत्त्व-चिन्तन की क्षमता प्रदान की। फलतः सभी दर्शनों में स्वीकृत अनुमान पर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला। सांख्य और मीमांसक मनीषियों द्वारा चिन्तन
ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि सांख्य-विद्वानों तथा प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि प्रभति मीमांसक चिन्तकों ने भी अपने-अपने ढंग से अनुमान का चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन चिन्तकों का चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तन से अछूते नहीं रहे। श्रुति के अलावा अनुमान को भी इन्हें स्वीकार करना पड़ा और उसका कम-बढ़ विवेचन किया है। जैन तार्किकों द्वारा विमर्श
जैन विचारक तो प्रारम्भ से ही अनुमान को मानते आये हैं। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या 'अभिनिबोध' संज्ञा से उन्होंने उसका व्यवहार किया हो । तत्त्वज्ञान, स्वतत्त्वसिद्धि, परपक्षदूषणोद्भावन के लिए उसे स्वीकार करके उन्होंने उसका पर्याप्त विवेचन किया है। उनके चिन्तन में जो विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जाता है:
उपलब्धियां अनुमान का स्वरूप
न्यायसूत्रकार प्रक्षपाद की 'तत्पूर्वकमनुमानम्,' प्रशस्तपाद की 'लिंगदर्शनात्संजायमानं लैंगिकम' और उद्योतकर की 'लिंगपरामर्शोऽनूपानम' परिभाषामों में केवल कारण का निर्देश है, अनुमान के स्वरूप का नहीं। उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लैंगिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' में भी लिंगरूप कारण का उल्लेख है, स्वरूप का नहीं। दिङ नागशिष्य शंकरस्वामी की 'अनुमानं लिंगादर्थदर्शनम्' परिभाषा में यद्यपि कारण और स्वरूप दोनों की अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारण के रूप में लिंग को सूचित किया है, लिंग के ज्ञान को नहीं। तथ्य यह है कि अज्ञायमान धूमादि लिंग अग्नि आदि के अनुमापक नहीं हैं। अन्यथा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, अगृहीत-व्याप्तिक है, उसे भी पर्वत में धूम के सद्भाव मात्र से अग्नि का अनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अत: शंकरस्वामी के उक्त अनुमानलक्षण में
| धम्मो दीयो 'लिंगात्' के स्थान पर 'लिंगदर्शनात्' पद होने पर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो सकता है।
संसार समुद्र में वर्म ही दीप है।
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