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बनेचन्द मालू
बोला-बड़ा मधुर होता है बचपन। भोला-भाला, छलकपट रहित मन। आसपास की घटनाओं में बेखबर। हंसते-खेलते पता नहीं कब बीत जाएगा यह सफर।
जीवन का सफर (आत्मा और मन का संवाद)
मैने पूछा- फिर? बोला बचपन में ही मत हो जाओ थिर। आगे चलो। यह किशोरावस्था है। कितनी सुन्दर व्यवस्था है। घर की जिम्मेदारी से मुक्त। हरदम खेलने-कूदने को उन्मुक्त, खाओ पीओ और मौज करो। ऐसी जिन्दगी से क्यों डरो? मैनें पूछा-आगे? बोला-क्या जल्दी है क्यों जाते हो भागे? अभी तो नशीली जवानी आई है, हर घड़ी रंगीली रसीली बातें सुहाई है। आगे की मत सोचो वह सब करते रहो जो मन भाए। जवानी में तो होता ही ऐसा है, कोई मस्ती में नाचे, तो कोई रोमांटिक गाना गाये। पता नहीं लगता-समय कैसे बीत जाये।
जन्म स्थान से श्मशान तक का छोटा सा सफर। इसे भी तय करने में न जाने, आदमी को कितने लगाने पड़ते हैं चक्कर।
मैं तो जन्मते ही बोला चलो छोटा सा रास्ता है कर लें जल्दी से पार। जवाब मिला बस अभी? अभी तो आये ही हो, अभी तो कुछ देखा ही नही है संसार।
मैंने कहा-संसार? मैं तो जाने के लिए आया हूँ। थोड़ी सी साधना करूं और हो जाऊँ पार। क्योंकि संसार तो है एकदम असार।
मैंने कहा-अच्छा! तो उसके बाद? बोला-धीरज रखो। अभी तो आयेगा जीवन का असली स्वाद। अब तक पूरी घर गृहस्थी बस जायेगी। बेटियां ब्याह कर चली जायेंगी, बेटे ब्याहेंगे बहुएं आयेंगी, पोते होंगे पोतियां होंगी, दोहिते होंगे, दोहितियां होंगी। पूरी फौज इकट्ठी हो जायेगी। भरे पूरे परिवार में पता ही नहीं चलेगा। प्रौढ़ावस्था कब गुजर जायेगी।
बोला धत्तेरे की। किसने भर दिया यह विचार? बिना देखे कैसे जानोगे? खुद देख लो तो मेरी बात मानोगे।
0 अष्टदशी / 1690
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