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३/धर्म और सिद्धान्त : १११
धर्मके रूपमें परिणमन होनेपर ही होती है, इसलिए 'सुह-सुद्धपरिणामेहि' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्द निरर्थक नहीं है तो इस बातको स्वीकार करने में यद्यपि कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु ऐसा स्वीकार करनेपर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि मोक्षकी प्राप्ति जीवकी भावबतीशक्तिके स्वभावभूत शुद्ध परिणमनके होनेपर होना एक बात है और उस स्वभावभूत शुद्ध परिणमनको कर्मक्षयका कारण मानना अन्य बात है, क्योंकि वास्तवमें देखा जाये तो द्वादशगुणस्थानवर्ती जीवका वह शुद्ध स्वभाव मोक्षरूप शुद्ध स्वभावका ही अंश है जो मोहनीयकर्मके सर्वथा क्षय होनेपर ही प्रकट होता है।
अन्तमें एक बात यह भी विचारणीय है कि उक्त 'सुह-सुद्धपरिणामेहिं' पदके अन्तर्गत 'सुद्ध' शब्दका जीवकी भाववतोशक्तिका स्वभावभूत शुद्ध परिणमन अर्थ स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त यह समस्या तो उपस्थित है ही कि द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें शुद्धस्वभावभूत निश्चयधर्मका पूर्ण विकास हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घाती कर्मोका एवं चारों अघाती कर्मों के एक साथ क्षय होने की प्रसक्ति होती है। साथ ही यह समस्या भी उपस्थित होती है कि जीवकी भाववतीशक्तिके स्वभावभत शद्ध परिणमनके विकासका प्रारम्भ, जब प्रथम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ-रूप चार, इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है, तो ऐसी स्थितिमें उस स्वभावभुत शद्ध परिणमनको कर्मोके संवर और निर्जरणका कारण कैसे माना जा सकता है ? अर्थात नहीं माना जा सकता है। यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है। प्रकृतमें कर्मोके आस्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जराकी प्रक्रिया
१. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जबतक आसक्तिवश मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशभ प्रवृत्ति करते रहते हैं तबतक वे उस प्रवृत्तिके आधारपर सतत कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं, तथा उस संकल्पीपापमय अशुभ प्रवृत्तिके साथ वे यदि कदाचित सांसारिक स्वार्थवश मानसिक वाचनिक और कायिक पण्यमय दयारूप शभ प्रवत्ति भी करते है तो भी वे उन प्रवृत्तियोंके आधारपर सतत कर्मोका आस्रव और बन्ध भी किया करते हैं ।
२. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव जब आसक्तिवश होनेवाले संकल्पीपपमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्तिको कर्तव्यवश करने लगते हैं, तब भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं ।
३. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें सर्वथा त्यागकर यदि आसक्तिवश होने वाले मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पुण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो भी वे कर्मोंका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं।
४. अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि जीव यदि उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिके उक्त प्रकार सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरम्भी पापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका भी मनोगुप्ति, वचनगप्ति और कायगप्तिके रूप में एकदेश अथवा सर्वदेश त्यागकर कर्तव्यवश मानसिक, वाचनिक और कायिक पण्यमय दयारूप शुभ प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो भी वे कर्मोका आस्रव और बन्ध ही किया करते हैं।
५. अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि जीव उक्त संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग
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